शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

शरद पूर्णिमा - सोलह कलाओं की पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा - सोलह कलाओं की पूर्णिमा


दूधिया रौशनी का अमृत बरसाने वाला त्यौहार शरद पूर्णिमा हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है. हिन्दू धर्मावलम्बी इस पर्व को कोजागरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा के रूप में भी मनाते हैं. ज्योतिषों के मतानुसार पूरे साल भर में केवल इसी दिन भगवान चंद्रदेव अपनी सोलह कलाओं के साथ परिपूर्ण होते हैं. इस रात इस पुष्प से मां लक्ष्मी की पूजा करने से भक्त को माता की विशेष कृपा प्राप्त होती है. कहते हैं इसी मनमोहक रात्रि पर भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों के संग रास रचाया था. 
शारदीय नवरात्र के बाद आने वाली आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। इसी दिन कौमुदी व्रत भी मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने गोपियों के साथ महारास रचाया था। भगवान श्रीकृष्ण और शरद पूर्णिमा का संबंध सोलह की संख्या से भी जुड़ता है। भारतीय चिंतन में सोलह की संख्या पूर्णता का प्रतीक मानी जाती है। श्रीकृष्ण सोलह कलाओं से युक्त संपूर्ण अवतार माने जाते हैं। इसी तरह, शरद पूर्णिमा को भी सोलह कलाओं से युक्त संपूर्ण पूर्णिमा कहा जाता है। महारास को शरद पूर्णिमा के दिन घटी सबसे बड़ी आध्यात्मिक घटना माना जाता है। 
भगवान श्रीकृष्ण का महारास आध्यात्मिक और लौकिक दोनों दृष्टियों से एक परम रहस्य है। आध्यात्मिक लोग इसे भगवान का अपने भक्त गोपियों पर किया गया अनुग्रह मानते हैं तो कुछ सांसारिक लोग इस प्रकरण को लेकर श्रीकृष्ण के चरित्र पर आक्षेप लगाते हैं। श्रीकृष्ण के महारास का विशद् वर्णन रासपंचाध्यायी में मिलता है। इस ग्रंथ का व्यापक अध्ययन करने पर यह स्पष्ट है कि महारास एक आध्यात्मिक परिघटना है। यह कामक्रीड़ा नहीं है। वर्णन के अनुसार शरदकाल की पूर्णिमा के दिन भगवान श्री कृष्ण ने अपनी बांसुरी के मधुर ध्वनि के जरिए गोपियों का आह्वान किया। बांसुरी की मधुर तान सुनकर गोपियां गृहस्थी के अपने समस्त कार्यो को छोड़कर श्रीकृष्ण की तरफ चल पड़ीं। अपने पास पहुंचने पर भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के मनोभाव की परीक्षा ली। यह परखने के लिए कि कहीं यह गोपियां कामवश तो यहां नहीं पहुंची हैं,उन्होंने सतीत्व का उपदेश दिया। श्रीकृष्ण कहते हैं कि-
दुःशीलो दुर्भगो वृद्धो जडो रोग्यधनोपि वा। 
पतिःस्त्रीभर्न हातव्यो लोकेप्सुभिरपातकी।।
अर्थात यदि पति पातकी न हो तो दुःशील, दुर्भाग्यशाली, वृद्ध, असमर्थ, रोगी और निर्धन होने पर भी इहलोक और परलोक में सुख चाहने वाली रमणी को उसका परित्याग नहीं करना चाहिए। इसके आगे भगवान श्रीकृष्ण फिर कहते हैं-
अस्वर्ग्यमशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम्। 
जुगुप्सितं च सर्वत्र हौपपत्यं कुलस्त्रियाः।।
कुलनारी का अन्य पुरुषों के साथ रहना अत्यंत नीच कार्य है और कष्टप्रद तथा भयावह है। अन्य पुरुषों के साथ रहने वाली स्त्रियों को यश नष्ट हो जाता है,सुख समाप्त हो जाता है और वह अपयश की भागी बनती है। भगवान श्रीकृष्ण के सतीत्व संबंधी वचनों के बाद गोपियों ने जो जवाब दिया है उससे यह स्पष्ट होता है कि महारास कामक्रीड़ा नहीं हैं। गोपियां कहती हैं कि पति पालन-पोषण करता है और पुत्र नरक से तारता है । लेकिन पुत्र और पति यह भूमिकाएं अल्पकाल तक ही निभाते हैं। आप तो जन्म-जन्मांतरों तक व्यक्ति के पालन पोषण का कार्य करते हैं और स्वर्ग के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। इसलिए हे श्याम!हमारी परीक्षा मत लीजिए। इसके बाद गोपियां मण्डलाकार खड़ी हो जाती हैं और योगेश्वर श्रीकृष्ण मंडल में प्रवेश कर प्रत्येक दो गोपियां के बीच प्रकट हुए और सभी गोपियों के साथ रासोत्सव किया। 
भगवान श्रीकृष्ण और शरद पूर्णिमा का संबंध सोलह की संख्या से भी जुड़ता है।

बुधवार, 27 जुलाई 2016

What is Doping Test

क्या है डोपिंग टेस्ट का मकड़जाल और इसमें कैसे फंसते हैं खिलाड़ी?


डोप टेस्ट में पहलवान नरसिंह यादव के फेल होने से रियो ओलंपिक में भारत की मेडल जीतने की उम्मीदों को झटका लगने के साथ ही फजीहत भी हुई है.
ऐसे में सवाल उठता है कि कोई खिलाड़ी डोपिंग क्यों करता है? डोप टेस्ट क्या होता है? यह टेस्ट कौन लेता है? इसके कानूनी प्रावधान क्या है? कोई खिलाड़ी अगर डोप टेस्ट में फेल होता है तो फिर इस पर क्या कार्रवाई होती है?
डोपिंग का जाल
आम तौर पर एक खिलाड़ी का करियर छोटा होता है. अपने सर्वश्रेष्ठ फॉर्म में होने के समय ही ये खिलाड़ी अमीर और मशहूर हो सकते हैं. इसी जल्दबाजी और शॉर्टकट तरीके से मेडल पाने की भूख में कुछ खिलाड़ी अक्सर डोपिंग के जाल में फंस जाते हैं.
यह बीमारी केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में फैली हुई है. हाल ही में अंतरराष्ट्रीय खेल पंचाट ने डोपिंग को लेकर रूस की अपील खारिज कर दी, जिससे रूस की ट्रैक और फील्ड टीम रियो ओलंपिक में भाग नहीं ले सकेगी. यहां तक कि बीजिंग ओलंपिक 2008 के 23 पदक विजेताओं समेत 45 खिलाड़ी पॉजीटिव पाए गए. बीजिंग और लंदन ओलंपिक के नमूनों की दोबारा जांच में नाकाम रहे खिलाड़ियों की संख्या अब बढ़कर 98 हो गई है.
1968 में पहली बार हुई थी फजीहत
भारत में डोपिंग को लेकर बड़ा खुलासा 1968 के मेक्सिको ओलंपिक के ट्रायल के दौरान हुआ था, जब दिल्ली के रेलवे स्टेडियम में कृपाल सिंह 10 हजार मीटर दौड़ में भागते समय ट्रैक छोड़कर सीढ़ियों पर चढ़ गए थे. उस दौरान कृपाल सिंह के मुंह से झाग निकलने लगा था और वे बेहोश हो गए थे. जांच में पता चला कि कृपाल ने नशीले पदार्थ ले रखे थे, ताकि मेक्सिको ओलंपिक के लिए क्वालिफाई कर पाएं. इसके बाद तो फिर डोपिंग के कई मामले सामने आए.
अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के नियमों के अनुसार डोपिंग के लिए खिलाड़ी और केवल खिलाड़ी ही जिम्मेदार होता है. डोपिंग में आने वाली दवाओं को पांच श्रेणियों में रखा गया है. ये हैं- स्टेरॉयड, पेप्टाइड हार्मोन, नार्कोटिक्स, डाइयूरेटिक्स और ब्लड डोपिंग.
क्या है वाडा और नाडा?
किसी भी खिलाड़ी का डोप टेस्ट विश्व डोपिंग विरोधी संस्था (वाडा) या राष्ट्रीय डोपिंग विरोधी (नाडा) ले सकता है. अंतरराष्ट्रीय खेलों में ड्रग्स के बढ़ते चलन रोकने के लिए वाडा की स्थापना 10 नवंबर, 1999 को स्विट्जरलैंड के लुसेन शहर में की गई थी. इसी के बाद हर देश में नाडा की स्थापना की जाने लगी. इसके दोषियों को 2 साल सजा से लेकर आजीवन पाबंदी तक सजा का प्रावधान है.
कैसे लिया जाता है टेस्ट?
किसी भी खिलाड़ी का कभी भी डोप टेस्ट लिया जा सकता है. इसके लिए संबंधित फेडरेशन को जिम्मेदारी दी गई है. किसी प्रतियोगिता से पहले या प्रशिक्षण शिविर के दौरान डोप टेस्ट अक्सर लिए जाते हैं. ये टेस्ट नाडा या फिर वाडा की तरफ से कराए जाते हैं. वह खिलाड़ियों के मूत्र को वाडा नाडा के विशेष लेबोरेट्री में पहुंचाती है.
नाडा की लेबोरेट्री नई दिल्ली में है. ‘ए’ टेस्ट में पॉजीटिव आने पर खिलाड़ी को बैन किया जा सकता है. यदि खिलाड़ी चाहे तो ‘बी’ टेस्ट के लिए एंटी डोपिंग पैनल में अपील कर सकता है. इसके बाद फिर नमूने की जांच होती है. यदि ‘बी’ टेस्ट भी पॉजीटिव आए तो अनुशासन पैनल खिलाड़ी पर पाबंदी लगा सकती है.

सोमवार, 4 जुलाई 2016

योगेन्द्र सिंह यादव




योगेन्द्र सिंह यादव
पूरा नाम
ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव
जन्म
जन्म भूमि
औरंगाबाद अहीर गांव, बुलंदशहर,उत्तर प्रदेश
अभिभावक
पिता- श्री करन सिंह यादव (भूतपूर्व सैनिक)
पुरस्कार-उपाधि
नागरिकता
भारतीय
संबंधित लेख
रैंक
नायब सूबेदार
यूनिट
18 ग्रेनेडियर्स
अन्य

जानकारी
योगेन्द्र सिंह यादव जब भारतीय सेनामें नियुक्त हुए तब उनकी उम्र केवल 16 वर्ष पाँच महीने की थी। 19 वर्ष की आयु में वह परमवीर चक्र विजेता बन गए।









ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव (अंग्रेज़ी: Yogendra Singh Yadav, जन्म: 10 मई, 1980) परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय व्यक्ति है। इन्हें यह सम्मान सन 1999 में मिला। युद्ध के मोर्चे पर दुश्मन के छक्के छुड़ाते हुए अपने प्राणों की बलि देने वाले जवानों की सूची बड़ी लम्बी है, जिन्होंने राष्ट्र की उत्कृष्ट शौर्य परम्परा को जीवन्त किया। कारगिल युद्ध के बाद भारतीय सेना के चार शूरवीरों को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। उन्हीं में एक ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव भी हैं।
जीवन परिचय
सबसे कम मात्र 19 वर्ष कि आयु में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले इस वीर योद्धा योगेन्द्र सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के औरंगाबाद अहीर गांव में 10 मई, 1980 को हुआ था। 27 दिसंबर, 1996 को सेना की 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हुए योगेन्द्र सिंह यादव की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सेना की ही रही है, जिसके चलते वो इस ओर तत्पर हुए।
भारत-पाकिस्तान युद्ध (1999)
  मुख्य लेख : कारगिल युद्ध
मई-जुलाई 1999 में हुई भारत और पाकिस्तान की कारगिल की लड़ाई वैसे तो हमेशा की तरह, भारत की विजय के साथ खत्म हुई, लेकिन उसे बहुत अर्थों में एक विशिष्ट युद्ध कहा जा सकता है। एक तो यह कि, यह लड़ाई पाकिस्तान की कुटिल छवि को एक बार फिर सामने लाने वाली कही जा सकती है। पाकिस्तान इस लड़ाई की योजना के साथ कई वर्षों से जाँच परख भरी तैयारी कर रहा था, भले ही ऊपरी तौर पर वह खुद को शांति वाहक बताने से भी चूक नहीं रहा था। दूसरी ओर, यह लड़ाई बेहद कठिन मोर्चे पर लड़ी गई थी। तंग संकरी पगडंडी जैसे पथरीले रास्ते, और बर्फ से ढकी पहाड़ की चोटियाँ। यह ऐसे माहौल की लड़ाई थी, जिसकी हमारे सैनिक सामान्यतः उम्मीद नहीं कर सकते थे, दूसरी तरफ, पाकिस्तान के सैनिकों को इस दुश्वार जगह युद्ध का अध्यान न जाने कब से दिलाया जा रहा था। इस युद्ध में भारत के चार योद्धाओं को परमवीर चक्र दिए गए, जिनमें से दो योद्धा इसे पाने से पहले ही वीरगति को प्राप्त हो गए। सम्मान सहित स्वयं उपस्थित होकर जिन दो बहादुरों नें यह परमवीर चक्र पाया, उनमें से एक थे ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव, जो 18 ग्रेनेडियर्स में नियुक्त थे। इनके पिता करन सिंह यादव भी भूतपूर्व सैनिक थे वह कुमायूँ रेजिमेंट से जुड़े हुए थे और 1965 तथा 1971 की लड़ाइयों में हिस्सा लिया था। पिता के इस पराक्रम के कारण योगेन्द्र सिंह यादव तथा उनके बड़े भाई जितेन्द्र दोनों फौज में जाने को लालायित थे। दोनों के अरमान पूरे हुए। बड़े भाई जितेन्द्र सिंह यादव आर्टिलरी कमान में गए और योगेन्द्र सिंह यादव ग्रेनेडियर बन गए। योगेन्द्र सिंह यादव जब सेना में नियुक्त हुए तब उनकी उम्र केवल 16 वर्ष पाँच महीने की थी। 19 वर्ष की आयु में वह परमवीर चक्र विजेता बन गए। उन्होंने यह पराक्रम कारगिल की लड़ाई में टाइगर हिल के मोर्चे पर दिखाया।
कारगिल की लड़ाई में पाकिस्तान का मंसूबा कश्मीर को लद्दाख से काट देने का था, जिसमें वह श्रीनगर-लेह मार्ग को बाधित करके कारगिल को एकदम अलग-थलग कर देना चाहते थे, ताकि भारत का सियाचिन से सम्पर्क मार्ग टूट जाए इस तरह पाकिस्तान का यह मंसूबा भी कश्मीर पर ही दांव लगाने के लिए था। टाइगर हिल इसी पर्वत श्रेणी का एक हिस्सा था। द्रास क्षेत्र में स्थित टाइगर हिल का महत्व इस दृष्टि से था कि यहाँ से राष्ट्रीय राजमार्ग 1A पर नियंत्रण रखा जा सकता था। इस राज मार्ग पर अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए पाकिस्तानी फौजी ने अपनी जड़ें मजबूती से जमा रखी थीं और उनका वहाँ हथियारों और गोलाबारूद का काफ़ी जखीरा पहुँचा हुआ था। भारत के लिए इस ठिकाने से दुश्मन को हटाना बहुत जरूरी था। टाइगर हिल को उत्तरी, दक्षिणी तथा पूर्वी दिशाओं से भारत की 8 सिख रेजिमेंट ने पहले ही अलग कर लिया था और उसका यह काम 21 मई को ही पूरा हो चुका था। पश्चिम दिशा से ऐसा करना दो कारणों से नहीं हुआ था। पहला तो यह, कि वह हिस्सा नियंत्रण रेखा के उस पार पड़ता था, जिसे पार करना भारतीय सेना के लिए शिमला समझौते के अनुसार प्रतिबन्धित था, लेकिन पाकिस्तान ने उस समझौते का उलंघन कर लिया था दूसरा कारण यह था कि अब पूरी रिज पर दुश्मन घात लगा कर बैठ चुका था। ऐसी हालत में भारत के पास आक्रमण ही सिर्फ एक रास्ता बचा था।
टाइगर हिल पर तिरंगा
3-4 जुलाई 1999 की रात को 18 ग्रेनेडियर्स को यह जिम्मा सौंपा गया कि वह पूरब की तरफ से टाइगर हिल को कब्जे में करें। उसके लिए वह 8 सिख बटालियन को साथ ले लें। इसी तरह 8 सिह बटालियन को भी यय जिम्मा सौंपा गया कि वह हमले का दवाब दक्षिण तथा उत्तर से बनाए रखें और इस तरह टाइगर हिल को पश्चिम की तरफ से अलग-थलग कर दें। रात साढ़े 8 बजे टाइगर हिल पर आक्रमण का सिलसिला शुरू किया गया। 4 जुलाई 1999 को आधी रात के बाद डेढ़ बजे 18 ग्रेनेडियर्स ने टाइगर हिल के एक हिस्से पर अपना कब्जा जमा लिया। इसी तरह सुबह 4.00 बजे तक 8 सिख बटालियन ने भी अपने हमलों का दबाव बनाते हुए पश्चिमी छोर से टाइगर हिल के महत्त्वपूर्ण ठिकाने अपने काबू में कर लिए और 5 जुलाई को यह मोर्चा काफ़ी हद तक फ़तह हो गया। इस बीच 18 ग्रेनेडियर्स ने अपने हमले जारी रखे और भारी प्रतिरोध के बावजूद टाइगर हिल को पूरी तरह हथियाने का काम चलता रहा। 8 सिख बटालियन पाकिस्तानी फौजों के जवाबी हमले नाकामयाब करती रहीं और इस तरह 11 जुलाई को टाइगर हिल पूरी तरह भारत के कब्जे में आ गया।
अदम्य साहस का परिचय
3-4 जुलाई 1999 से शुरू होकर 11 जुलाई 1999 तक चलने वाला विजय अभियान इतना सरल नहीं था और उसकी सफलता में ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव का बड़ा योगदान है। ग्रेनेडियर यादव की कमांडो प्लाटून 'घटक' कहलाती थी। उसके पास टाइगर हिल पर कब्जा करने के क्रम में लक्ष्य यह था कि वह ऊपरी चोटी पर बने दुश्मन के तीन बंकर काबू करके अपने कब्जे में ले। इस काम को अंजाम देने के लिए 16,500 फीट ऊँची बर्फ से ढकी, सीधी चढ़ाई वाली चोटी पार करना जरूरी था। इस बहादुरी और जोखिम भरे काम को करने का जिम्मा स्वेच्छापूर्णक योगेन्द्र ने लिया और अपना रस्सा उठाकर अभियान पर चल पड़े। वह आधी ऊँचाई पर ही पहुँचे थे कि दुश्मन के बंकर से मशीनगन गोलियाँ उगलने लगीं और उनके दागे गए राकेट से भारत की इस टुकड़ी का प्लाटून कमांडर तथा उनके दो साथी मारे गए। स्थिति की गम्भीरता को समझकर योगेन्द्र सिंह ने जिम्मा संभाला और आगे बढ़ते बढ़ते चले गए। दुश्मन की गोलाबारी जारी थी। योगेन्द्र सिंह लगातार ऊपर की ओर बढ़ रहे थे कि तभी एक गोली उनके कँधे पर और रो गोलियाँ उनकी जाँघ पेट के पास लगीं लेकिन वह रुके नहीं और बढ़ते ही रहे। उनके सामने अभी खड़ी ऊँचाई के साठ फीट और बचे थे। उन्होंने हिम्मत करके वह चढ़ाई पूरी कीऔर दुश्मन के बंकर की ओर रेंगकर गए और एक ग्रेनेड फेंक कर उनके चार सैनिकों को वहीं ढेर कर दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना यादव ने दूसरे बंकर की ओर रुख किया और उधर भी ग्रेनेड फेंक दिया। उस निशाने पर भी पाकिस्तान के तीन जवान आए और उनका काम तमाम हो गया। तभी उनके पीछे आ रही टुकड़ी उनसे आ कर मिल गई। आमने-सामने की मुठभेड़ शुरू हो चुकी थी और उस मुठभेड़ में बचे-खुचे जवान भी टाइगर हिल की भेंट चढ़ गए। टाइगर हिल फ़तह हो गया था और उसमें ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह का बड़ा योगदान था। अपनी वीरता के लिए ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह ने परमवीर चक्र का सम्मान पाया और वह अपने प्राण देश के भविष्य के लिए भी बचा कर रखने में सफल हुए यह उनका ही नहीं देश का भी सौभाग्य है।[1]
टाइगर हिल का टाइगर
भारत और पाकिस्तान की नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान समर्थित घुसपैठियों 1999 के प्रारम्भ में कारगिल क्षेत्र की 16 से 18 हजार फुट ऊंची पहाड़ियों पर कब्जा जमा लिया था। मई1999 के पहले सप्ताह में इन घुसपैठियों ने श्रीनगर को लेह से जोड़ने वाले महत्वपूर्ण राजमार्ग पर गोलीबारी आरंभ कर दी। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए भारत ने इन घुसपैठियों के विरुद्ध 'आपरेशन विजय' के तहत कार्रवाई आरंभ की। इसके बाद संघर्षों का सिलसिला आरंभ हो गया। हड्‌डी गला देने वाली ठंड में भी भारतीय सेना के रणबांकुरों ने दुश्मनों का डट कर मुकाबला किया। 2 जुलाई को कमांडिंग आफिसर कर्नल कुशल ठाकुर के नेतृत्व में 18 ग्रेनेडियर को टाइगर हिल पर कब्जा करने का आदेश मिला। इसके लिए पूरी बटालियन को तीन कंपनियों- ‘अल्फा’, ‘डेल्टा’ व ‘घातक’ कम्पनी में बांटा गया। ‘घातक’ कम्पनी में ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव सहित 7 कमांडो शामिल थे। 4 जुलाई की रात में पूर्व निर्धारित योजनानुसार कुल 25 सैनिकों का एक दल टाइगर हिल की ओर बढ़ा। चढ़ाई सीधी थी और कार्य काफ़ी मुश्किल। टाइगर हिल में घुसपैठियों की तीन चौकियां बनीं हुई थीं। एक मुठभेड़ के बाद पहली चौकी पर कब्जा कर लिया गया। इसके बाद केवल 7 कमांडो वाला दल आगे बढ़ा। यह दल अभी कुछ ही दूर आगे बढ़ा था की दुश्मन की ओर से अंधाधुंध गोलीबारी आरंभ हो गयी। इस गोलीबारी में दो सैनिक शहीद हो गए। इन दोनों शहीदों को वापस छोड़कर शेष 05 जाबांज सैनिक आगे बढ़े। किन्तु एक भीषण मुठभेड़ में इन पांचों में चार शहीद हो गए और बचे केवल ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव। हालाँकि वह बुरी तरह घायल हो गए थे, उनकी बाएं हाथ की हड्‌डी टूट गई थी और हाथ ने काम करना बन्द कर दिया था। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। योगेन्द्र सिंह ने हाथ को बेल्ट से बांधकर कोहनी के बल चलना आरंभ किया। इसी हालत में उन्होंने अपनी ए.के.-47 राइफल से 15-20 घुसपैठियों को मार गिराया। इस तरह दूसरी चौकी पर भी भारत का कब्जा हो गया। अब उनका लक्ष्य 17,500 फुट की ऊंचाई पर स्थित चौकी पर कब्जा करना था। अत: वह धुआंधार गोलीबारी करते हुए आगे बढ़े, जिससे दुश्मन को लगने लगा कि काफ़ी संख्या में भारतीय सेना यहां पहुंच गई है। कुछ दुश्मन भाग खड़े हुए, तो कुछ चौकी में ही छिप गए, किन्तु ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव ने अपने अद्‌भुत साहस का परिचय देते हुए शेष बचे घुसपैठियों को भी मार गिराया और तीसरी चौकी पर कब्जा जमा लिया। इस संघर्ष में वह और अधिक घायल हो गए पर अपनी जांबाजी से अंतत: योगेन्द्र सिंह यादव टाइगर हिल पर तिरंगा फहराने में सफल रहे।
इसी बीच उन्होंने पाकिस्तानी कमाण्डर की आवाज सुनी, जो अपने सैनिकों को 500 फुट नीचे भारतीय चौकी पर हमला करने के लिए आदेश दे रहा था। इस हमले की जानकारी अपनी चौकी तक पहुंचाने के योगेन्द्र सिंह यादव ने अपनी जान की बाजी लगाकर पत्थरों पर लुढ़कना आरंभ किया और अंतत : जानकारी देने में सफल रहे। उनकी इस जानकारी से भारतीय सैनिकों को काफ़ी सहायता मिली और दुश्मन दुम दबाकर भाग निकले। योगेन्द्र सिंह यादव के जख्मी होने पर यह भी खबर फैली थी कि वे शहीद हो गए, पर जो देश की रक्षा करता है, उसकी रक्षा स्वयं ईश्वर ने ही की. भारत सरकार ने ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव के इस अदम्य साहस, वीरता और पराक्रम के मद्देनजर परमवीर चक्र से सम्मानित किया। सबसे कम मात्र 19 वर्ष कि आयु में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले इस वीर योद्धा ने उम्र के इतने कम पड़ाव में जांबाजी का ऐसा इतिहास रच दिया कि आने वाली सदियाँ भी याद रखेंगीं।[2]

लेख   bharatdiscovery.org/

स्वामी विवेकानन्द


4 जुलाई को वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि है। 114 साल पहले इसी दिन यानी 4 जुलाई 1902 को भारतीय चिंतन को समग्र विश्व में फैलाने वाले इस महापुरुष का अवसान हुआ था। स्वामी विवेकानंद की 114वीं पुण्यतिथि पर उनको शत-शत नमन


पूरा नाम स्वामी विवेकानन्द
अन्य नाम नरेंद्रनाथ दत्त (मूल नाम)
जन्म 12 जनवरी, 1863

जन्म भूमि कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता)

मृत्यु 4 जुलाई, 1902

मृत्यु स्थान रामकृष्ण मठ, बेलूर

अभिभावक विश्वनाथदत्त (पिता)
गुरु रामकृष्ण परमहंस

कर्म भूमि भारत

कर्म-क्षेत्र दार्शनिक, धर्म प्रवर्तक और संत
मुख्य रचनाएँ योग, राजयोग, ज्ञानयोग
विषय साहित्य, दर्शन और इतिहास

शिक्षा स्नातक
विद्यालय कलकत्ता विश्वविद्यालय

प्रसिद्धि आध्यात्मिक गुरु
नागरिकता भारतीय

स्वामी विवेकानन्द (अंग्रेज़ी: Swami Vivekananda, जन्म: 12 जनवरी, 1863 कलकत्ता - मृत्यु: 4 जुलाई, 1902 बेलूर) एक युवा सन्न्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगन्ध विदेशों में बिखरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान थे। विवेकानन्द जी का मूल नाम 'नरेंद्रनाथ दत्त' था, जो कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए। युगांतरकारी आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यवहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में जन्मे नरेंद्रनाथ चिंतन, भक्ति व तार्किकता, भौतिक एवं बौद्धिक श्रेष्ठता के साथ-साथ संगीत की प्रतिभा का एक विलक्षण संयोग थे। भारतमें स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

जीवन परिचय

श्री विश्वनाथदत्त पाश्चात्य सभ्यता में आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। श्री विश्वनाथदत्त के घर में उत्पन्न होने वाला उनका पुत्र नरेन्द्रदत्त पाश्चात्य जगत को भारतीय तत्त्वज्ञान का सन्देश सुनाने वाला महान विश्व-गुरु बना। स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता), भारत में हुआ। रोमा रोलाँ ने नरेन्द्रदत्त (भावी विवेकानन्द) के सम्बन्ध में ठीक कहा है- 'उनका बचपन और युवावस्था के बीच का काल योरोप के पुनरूज्जीवन-युग के किसी कलाकार राजपुत्र के जीवन-प्रभात का स्मरण दिलाता है।' बचपन से ही नरेन्द्र में आध्यात्मिक पिपासा थी। सन् 1884 में पिता की मृत्यु के पश्चात परिवार के भरण-पोषण का भार भी उन्हीं पर पड़ा। स्वामी विवेकानन्द ग़रीब परिवार के थे। नरेन्द्र का विवाह नहीं हुआ था। दुर्बल आर्थिक स्थिति में स्वयं भूखे रहकर अतिथियों के सत्कार की गौरव-गाथा उनके जीवन का उज्ज्वल अध्याय है। नरेन्द्र की प्रतिभा अपूर्व थी। उन्होंने बचपन में ही दर्शनों का अध्ययन कर लिया। ब्रह्मसमाज में भी वे गये, पर वहाँ उनकी जिज्ञासा शान्त न हुई। प्रखर बुद्धि साधना में समाधान न पाकर नास्तिक हो चली।

शिक्षा

1879 में 16 वर्ष की आयु में उन्होंने कलकत्ता से प्रवेश परीक्षा पास की। अपने शिक्षा काल में वे सर्वाधिक लोकप्रिय और एक जिज्ञासु छात्र थे। किन्तु हरबर्ट स्पेन्सर[1] के नास्तिकवाद का उन पर पूरा प्रभाव था। उन्होंने से स्नातक उपाधि प्राप्त की और ब्रह्म समाज में शामिल हुए, जो हिन्दू धर्म में सुधार लाने तथा उसे आधुनिक बनाने का प्रयास कर रहा था।

 रामकृष्ण से भेंट

युवावस्था में उन्हें पाश्चात्य दार्शनिकों के निरीश्वर भौतिकवाद तथा ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ भारतीय विश्वास के कारण गहरे द्वंद्व से गुज़रना पड़ा। परमहंस जी जैसे जौहरी ने रत्न को परखा। उन दिव्य महापुरुष के स्पर्श ने नरेन्द्र को बदल दिया। इसी समय उनकी भेंट अपने गुरुरामकृष्ण से हुई, जिन्होंने पहले उन्हें विश्वास दिलाया कि ईश्वर वास्तव में है और मनुष्य ईश्वर को पा सकता है। रामकृष्ण ने सर्वव्यापी परमसत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में नरेंद्र का मार्गदर्शन किया और उन्हें शिक्षा दी कि सेवा कभी दान नहीं, बल्कि सारी मानवता में निहित ईश्वर की सचेतन आराधना होनी चाहिए। यह उपदेश विवेकानंद के जीवन का प्रमुख दर्शन बन गया। कहा जाता है कि उस शक्तिपात के कारण कुछ दिनों तक नरेन्द्र उन्मत्त-से रहे। उन्हें गुरु ने आत्मदर्शन करा दिया था। पचीस वर्ष की अवस्था में नरेन्द्रदत्त ने काषायवस्त्र धारण किये। अपने गुरु से प्रेरित होकर नरेंद्रनाथ ने सन्न्यासी जीवन बिताने की दीक्षा ली और स्वामी विवेकानंद के रूप में जाने गए। जीवन के आलोक को जगत के अन्धकार में भटकते प्राणियों के समक्ष उन्हें उपस्थित करना था। स्वामी विवेकानंद ने पैदल ही पूरे भारत की यात्रा की।

देश का पुनर्निर्माण

रामकृष्ण की मृत्यु के बाद उन्होंने स्वयं को हिमालय में चिंतनरूपी आनंद सागर में डुबाने की चेष्टा की, लेकिन जल्दी ही वह इसे त्यागकर भारत की कारुणिक निर्धनता से साक्षात्कार करने और देश के पुनर्निर्माण के लिए समूचे भारत में भ्रमण पर निकल पड़े। इस दौरान उन्हें कई दिनों तक भूखे भी रहना पड़ा। इन छ्ह वर्षों के भ्रमण काल में वह राजाओं और दलितों, दोनों के अतिथि रहे। उनकी यह महान यात्रा कन्याकुमारी में समाप्त हुई, जहाँ ध्यानमग्न विवेकानंद को यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की ओर रुझान वाले नए भारतीय वैरागियों और सभी आत्माओं, विशेषकर जनसाधारण की सुप्त दिव्यता के जागरण से ही इस मृतप्राय देश में प्राणों का संचार किया जा सकता है। भारत के पुनर्निर्माण के प्रति उनके लगाव ने ही उन्हें अंततः 1893 में शिकागो धर्म संसद मं् जाने के लिए प्रेरित किया, जहाँ वह बिना आमंत्रण के गए थे, परिषद में उनके प्रवेश की अनुमति मिलनी ही कठिन हो गयी। उनको समय न मिले, इसका भरपूर प्रयत्न किया गया। भला, पराधीन भारत क्या सन्देश देगा- योरोपीय वर्ग को तो भारत के नाम से ही घृणा थी। एक अमेरिकन प्रोफेसर के उद्योग से किसी प्रकार समय मिला और 11 सितंबर सन् 1893 के उस दिन उनके अलौकिक तत्वज्ञान ने पाश्चात्य जगत को चौंका दिया। अमेरिका ने स्वीकार कर लिया कि वस्तुत: भारत ही जगद्गुरु था और रहेगा। स्वामी विवेकानन्द ने वहाँ भारत और हिन्दू धर्म की भव्यता स्थापित करके ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा। 'सिस्टर्स ऐंड ब्रदर्स ऑफ़ अमेरिका' (अमेरिकी बहनों और भाइयों) के संबोधन के साथ अपने भाषण की शुरुआत करते ही 7000 प्रतिनिधियों ने तालियों के साथ उनका स्वागत किया। विवेकानंद ने वहाँ एकत्र लोगों को सभी मानवों की अनिवार्य दिव्यता के प्राचीन वेदांतिक संदेश और सभी धर्मों में निहित एकता से परिचित कराया। सन् 1896 तक वे अमेरिकारहे। उन्हीं का व्यक्तित्व था, जिसने भारत एवं हिन्दू-धर्म के गौरव को प्रथम बार विदेशों में जाग्रत किया। 

धर्म एवं तत्वज्ञान के समान भारतीय स्वतन्त्रता की प्रेरणा का भी उन्होंने नेतृत्व किया। स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे- 'मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ। न तो संत या दार्शनिक ही हूँ। मैं तो ग़रीब हूँ और ग़रीबों का अनन्य भक्त हूँ। मैं तो सच्चा महात्मा उसे ही कहूँगा, जिसका हृदय ग़रीबों के लिये तड़पता हो।'

पाँच वर्षों से अधिक समय तक उन्होंने अमेरिका के विभिन्न नगरों, लंदन और पेरिस में व्यापक व्याख्यान दिए। उन्होंने जर्मनी,रूस और पूर्वी यूरोप की भी यात्राएं कीं। हर जगह उन्होंने वेदांत के संदेश का प्रचार किया। कुछ अवसरों पर वह चरम अवस्था में पहुँच जाते थे, यहाँ तक कि पश्चिम के भीड़ भरे सभागारों में भी। यहाँ उन्होंने समर्पित शिष्यों का समूह बनाया और उनमें से कुछ को अमेरिका के 'थाउज़ेंड आइलैंड पार्क' में आध्यात्मिक जीवन में प्रशिक्षित किया। उनके कुछ शिष्यों ने उनका भारत तक अनुसरण किया। स्वामी विवेकानन्द ने विश्व भ्रमण के साथ उत्तराखण्ड के अनेक क्षेत्रों में भी भ्रमण किया जिनमें अल्मोड़ा तथाचम्पावत में उनकी विश्राम स्थली को धरोहर के रूप में सुरक्षित किया गया है।

वेदांत धर्म

1897 में जब विवेकानंद भारत लौटे, तो राष्ट्र ने अभूतपूर्व उत्साह के साथ उनका स्वागत किया और उनके द्वारा दिए गए वेदांत के मानवतावादी, गतिशील तथा प्रायोगिक संदेश ने हज़ारों लोगों को प्रभावित किया। स्वामी विवेकानन्द ने सदियों के आलस्य को त्यागने के लिए भारतीयों को प्रेरित किया और उन्हें विश्व नेता के रूप में नए आत्मविश्वास के साथ उठ खड़े होने तथा दलितों व महिलाओं को शिक्षित करने तथा उनके उत्थान के माध्यम से देश को ऊपर उठाने का संदेश दिया। स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की कि सभी कार्यों और सेवाओं को मानव में पूर्णतः व्याप्त ईश्वर की परम आराधना बनाकर वेदांत धर्म को व्यवहारिक बनाया जाना ज़रूरी है। वह चाहते है कि भारत पश्चिमी देशों में भी आध्यात्मिकता का प्रसार करे। स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की कि सिर्फ़ अद्वैत वेदांत के आधार पर ही विज्ञान और धर्म साथ-साथ चल सकते हैं, क्योंकि इसके मूल में अवैयक्तिक ईश्वर की आधारभूत धारणा, सीमा के अंदर निहित अनंत और ब्रह्मांड में उपस्थित सभी वस्तुओं के पारस्परिक मौलिक संबंध की दृष्टि है। उन्होंने सभ्यता को मनुष्य में दिव्यता के प्रतिरूप के तौर पर परिभाषित किया और यह भविष्यवाणी भी की कि एक दिन पश्चिम जीवन की अनिवार्य दिव्यता के वेदांतिक सिद्धान्त की ओर आकर्षित होगा। विवेकानंद के संदेश ने पश्चिम के विशिष्ट बौद्धिकों, जैसे विलियम जेम्स, निकोलस टेसला, अभिनेत्री सारा बर्नहार्ड और मादाम एम्मा काल्व, एंग्लिकन चर्च, लंदन के धार्मिक चिंतन रेवरेंड कैनन विल्वरफ़ोर्स, और रेवरेंड होवीस तथा सर पैट्रिक गेडेस, हाइसिंथ लॉयसन, सर हाइरैम नैक्सिम, नेल्सन रॉकफ़ेलर, लिओ टॉल्स्टॉय व रोम्यां रोलां को भी प्रभावित किया। अंग्रेज़भारतविद ए. एल बाशम ने विवेकानंद को इतिहास का पहला व्यक्ति बताया, जिन्होंने पूर्व की आध्यात्मिक संस्कृति के मित्रतापूर्ण प्रत्युत्तर का आरंभ किया और उन्हें आधुनिक विश्व को आकार देने वाला घोषित किया।

मसीहा के रूप में

अरबिंदो घोष, सुभाषचंद्र बोस, सर जमशेदजी टाटा, रबींद्रनाथ टैगोर तथा महात्मा गांधी जैसे महान व्यक्तियों ने स्वामी विवेकानन्द को भारत की आत्मा को जागृत करने वाला और भारतीय राष्ट्रवाद के मसीहा के रूप में देखा। विवेकानंद 'सार्वभौमिकता' के मसीहा के रूप में उभरे। स्वामी विवेकानन्द पहले अंतरराष्ट्रवादी थे, जिन्होंने 'लीग ऑफ़ नेशन्स' के जन्म से भी पहले वर्ष 1897 में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, 

अतीत के झरोखे से

पश्चिम को योग और ध्यान से परिचित कराने वाले स्वामी विवेकानंद के बारे में वहां कम ही लोग जानते हैं लेकिन भारत में इस बंगाली बुद्धिजीवी का अब भी बहुत सम्मान किया जाता है। न्यूयॉर्क में जहां कभी स्वामी विवेकानंद रहते थे, वो बीबीसी संवाददाता ऐमिली ब्युकानन का ही घर था। बजरी पर कार के टायरों की चरमराहट, आने वाले तूफान की आशंका और हवाओं के साथ झूमते पेड़। 1970के दशक में ऐमिली ब्युकानन के लिए इन बातों के कोई मायने नहीं थे। उनका नज़रिया हाल में उस वक्त बदला जब इन्हें पता चला कि वह स्वामी भारत के सबसे प्रभावशाली आध्यात्मिक शिक्षकों में से एक थे। स्वामी विवेकानंद ने पश्चिम को पूरब के दर्शन से परिचित कराया था। ऐमिली ब्युकानन के परिवार ने उस जमाने में उन्हें अपने घर में रहने के लिए आमंत्रित किया था और स्वामी जी के काम के प्रकाशन में उनकी सहायता की थी। शिकागो में हुए धर्मों के विश्व संसद से उन्हें दुनिया भर में ख्याति मिली। इस धर्म संसद में विवेकानंद ने सहिष्णुता के पक्ष में और धार्मिक हठधर्मिता को खत्म करने का आह्वान किया। अजीब इत्तफ़ाक़ था कि वह तारीख 11 सितंबर की थी। ‘अमेरिका के भाईयों और बहनों’ कहकर उन्होंने अपनी बात शुरू की थी। प्रवाहपूर्ण अंग्रेज़ी में असरदार आवाज़ के साथ भाषण दे रहे उस सन्न्यासी ने गेरूए रंग का चोगा पहन रखा था। पगड़ी पहने हुए स्वामी की एक झलक देखने के लिए वहां मौजूद लोग बहुत उत्साह से खड़े हो गए थे। इस भाषण से स्वामी विवेकानंद की लोकप्रियता बढ़ गई और उनके व्याख्यानों में भीड़ उमड़ने लगी। ईश्वर के बारे में यहूदीवाद और ईसाईयत के विचारों के आदी हो चुके लोगों के लिए योग और ध्यान का विचार नया और रोमांचक था। रामकृष्ण परमहंसकी अनुयायी कैलिफोर्नियाई नन को वहां 'प्रव्राजिका गीताप्रणा' के नाम से जाना जाता है। वहां रिट्रीट सेंटर चला रहीं प्रवराजिका गीताप्रणा ने ऐमिली ब्युकानन को पूरी जगह दिखाई। घर में साथ टहलते हुए प्रवराजिका ने बताया कि उनका बिस्तर भारत भेज दिया गया है लेकिन यह वही कमरा है जहां वो सोया करते थे, इस भोजन कक्ष में वह खाना खाया करते थे। स्वामी विवेकानंद बीबीसी संवाददाता ऐमिली ब्युकानन की परदादी को 'जोई-जोई' कहा करते थे। वह उम्र भर उनकी दोस्त और अनुयायी रहीं। उन दिनों कम ही देखा जाता था कि श्वेत महिलाएं और भारतीय एक साथ यात्राएं करते हों।[2]

विवेकानंद ने 1 मई 1897 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन और 9 दिसंबर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के किनारेबेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की। उनके अंग्रेज़ अनुयायी कैप्टन सर्वियर और उनकी पत्नी ने हिमालय में 1899 में 'मायावती अद्वैत आश्रम' खोला। इसे सार्वभौमिक चेतना के अद्वैत दृष्टिकोण के एक अद्वितीय संस्थान के रूप में शुरू किया गया और विवेकानंद की इच्छानुसार, इसे उनके पूर्वी और पश्चिमी अनुयायियों का सम्मिलन केंद्र बनाया गया। विवेकानंद ने बेलूर में एक दृश्य प्रतीक के रूप में सभी प्रमुख धर्मों के वास्तुशास्त्र के समन्वय पर आधारित रामकृष्ण मंदिर के भावी आकार की रूपरेखा भी बनाई, जिसे 1937 में उनके साथी शिष्यों ने पूरा किया।

ग्रन्थों की रचना

'योग', 'राजयोग' तथा 'ज्ञानयोग' जैसे ग्रंथों की रचना करके विवेकानन्द ने युवा जगत को एक नई राह दिखाई है, जिसका प्रभाव जनमानस पर युगों-युगों तक छाया रहेगा। कन्याकुमारी में निर्मित उनका स्मारक आज भी उनकी महानता की कहानी कह रहा है।

मृत्यु

उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्वभर में है। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा "एक और विवेकानंद चाहिए, यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।" प्रत्यदर्शियों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने अपने 'ध्यान' करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घंटे ध्यान किया। उन्हें दमा और शर्करा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक व्याधियों ने घेर रखा था। उन्होंने कहा भी था, 'यह बीमारियाँ मुझे चालीसवर्ष के आयु भी पार नहीं करने देंगी।' 4 जुलाई, 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मंदिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की।
लेख  http://bharatdiscovery.org/

सोमवार, 20 जून 2016

गीताज्ञान प्रश्नोत्तरी

गीताज्ञान प्रश्नोत्तरी
1      गीता किसको सुनाई गई थी? - अर्जुन को
2     गीता किसने सुनाई थी?-कृष्ण ने
3     गीता किस ग्रन्थ से ली गई है?-महाभारत से
4     गीता में कितने अध्याय हैं?-18
5     गीता में विराटस्वरूप किसने दिखाया था?- कृष्ण ने
6     गीता महाभारत के बाद सुनाई गई या पहले?-पहले
7     गीता कितने दिन में सुनाई गई?-18 दिन में
8     महाभारत का युद्ध् कितने दिन चला था?- 18 दिन
9     महाभारत युद्ध् किन दो सेनाओं के बीच हुआ था?-कौरव और पाण्डव
10    पाण्डव कितने भाई थे?-5
11    कौरवों की संख्या कितनी थी?-100
12   कौरवों में ज्येष्ठ कौन था?-दुर्योध्न
13    कृष्ण ने कौन सा शंख बजाया था?-पांचजन्य
14   बुद्ध् िनाश होने पर क्या होता है?-मृत्यु
15   क्रोध् की उत्पत्ति किससे होती है?-काम अर्थात् इच्छाओं की पूर्ति न होने पर
16   स्मृतिभ्रम किसके कारण होता है?-सम्मोह से
17    वसुदेव किसका नाम है?- कृष्ण के पिता का इसीलिए उन्हें वासुदेव कहा जाता है।
18    अर्जुन के कितने नाम हैं?- दस
19   पाण्डवों की माता का क्या नाम था?-कुन्ती
20  हमारे शत्राु कौन हैं? काम, क्रोध् और लोभ
21   लोभ कैसे बढ़ता है? विषयों के चिन्तन से और उनके पूरे होने से
22  कौरव और पाण्डवों के गुरु कौन हैं?-द्रोणाचार्य
23  भगवान का अवतार कब होता है?- जब ध्र्म की हानि होती है और अध्र्म बढ़ने लगता है।
24  भगवान का अवतार क्यों होता है?-अध्र्म के विनाश और ध्र्म की स्थापना करने के लिए।
25  संसार में सबसे पवित्रा क्या है?-ज्ञान ;गीता 4.38द्ध
26  पण्डित किसे कहते हैं?- जो समदर्शी हो।;5.18द्ध
27  मन कैसा है?-चंचल और दुर्निग्रह ;जिसका नियन्त्राण कठिन होद्ध 6.35
28  भक्त कितने प्रकार के होते हैं?-

  •      आर्ती-दुःखों को दूर करने हेतु भक्ति करने वाला।
  •      अर्थार्थी- अपने कार्य को पूरा करने के लिए भक्ति करने वाला।
  •      जिज्ञासु- भगवान् को जानने की इच्छा से भक्ति करने वाला।
  •     ज्ञानी- जो वास्तविक में भगवान को जानता है।

29  गुण कितने होते हैं? त्रिगुण ;सत्, रज, तमद्ध
30   सत्व गुण से क्या होता है?-ज्ञान की उत्पत्ति होती है। 14.17
31    रजो गुण से क्या होता है?- लोभ और स्वार्थ बुद्ध् िकी उत्पत्ति होती है। 14.17
32  तमो गुण से क्या होता है?- आलस्य, अज्ञान
33   सच्ची भक्ति क्या है- अपने कर्म को बिना किसी फ्रफल की इच्छा से करते रहना।
34  कितनी प्रकार की सम्पदा होती है?- दैवी और आसुरी
35  शरीर का तप क्या है?-अपने से बड़ों का सम्मान करना, माता-पिता की आज्ञाओं का पालन करना, ज्ञान              प्राप्त करना, विचारों को पवित्रा रखना, अहिंसा
36  वाणी का तप क्या है?- प्रिय और हितकारी वचनों को बोलना
37   मन का तप क्या है?- शान्त रहना, किसी से भी शत्राु भाव न रखना, हमेशा प्रसन्न रहना
38   मनुष्य को सफ्रफलता कैसे प्राप्त होती है?- अपने कर्म को ईमानदारी से करते रहने से। 18.45

39  सभी के अन्दर कौन वास करता है?- ईश्वर

शनिवार, 18 जून 2016

यादव जाति - एक परिचय


यादव जाति : एक परिचय :-
(1)
यदोवनशं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः परमुच्यते।
यत्राव्तीर्णं कृष्णाख्यं परंब्रह्म निराकृति ।।
(श्री विष्णु पुराण)
**************
(2)
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणां ।
यदोर्वन्शं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।
यत्र-अवतीर्णो भग्वान् परमात्मा नराकृतिः।
यदोसह्त्रोजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः।।
(श्रीमदभग्वत् -महापुराण)

अर्थ:
(यदु वंश परम पवित्र वंश है. यह मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है. इस वंश में स्वयम भगवान परब्रह्म ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था जिन्हें श्रीकृष्ण कहते है. जो मनुष्य यदुवंश का श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा.
      यादव भारत एवं नेपाल में निवास करने वाला एक प्रमुख जाति हैजो चंद्रवंशी राजा यदु के वंशज हैं इस वंश में अनेक शूरवीर एवं चक्रवर्ती राजाओं ने जन्म लिया हैजिन्होंने अपने बुद्धिबल और कौशल से कालजयी साम्राज्य की स्थापना किये भाफ्वान श्री कृष्ण इनके पूर्वज माने जाते हैं |

      प्रबुद्ध समाजशास्त्री एम्. एस ए राव के अनुसार यादव एक हिन्दू जाति वर्णआदिम जनजाति या नस्ल हैजो भारत एवं नेपाल में निवास करने वाले परम्परागत चरवाहों एवं गड़ेरिया समुदाय अथवा कुल का एक समूह है और अपने को पौराणिक राजा यदु के वंशज मानते हैं इनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन और कृषि था |
      यादव जाति की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या के लगभग 16% है अलग-अलग राज्यों में यादवों की आबादी का अनुपात अलग-अलग है| 1931 ई० की जनगणना के अनुसार बिहार में यादवों की आबादी लगभग 11% एवं उत्तर प्रदेश में 8.7% थी यादव भारत की सर्वाधिक आबादी वाली जाति हैजो कमोबेश भारत के सभी प्रान्तों में निवास करती है नेपाल में भी यादवों के आबादी लगभग 20% के आसपास हैनेपाल के तराई क्षेत्र में यादव जाति की बहुलता अधिक हैजहाँ इनकी आबादी 25 से 30% है|
      वर्त्तमान एवं आधुनिक भारत में यादव समुदाय को भारत की वर्त्तमान सामाजिक एवं जातिगत संरचना के आधार पर मुख्य रूप से तीन जाति वर्ग में विभक्त किया जा सकता है ये तीन प्रमुख जाति वर्ग है –
1.   अहीर, ग्वाला, आभीर या गोल्ला जाति
2.   कुरुबा, धनगर, पाल, बघेल या गड़ेरिया जाति तथा
3.   यदुवंशी राजपूत जाति
1.     अहीरग्वालाआभीर - वर्तमान में अपने को यादव कहनेवाले ज्यादातर लोग इसी जाति वर्ग से आते हैं यह योद्धा जाति रही हैपरन्तु राज्य के नष्ट हो जाने पर जीवकोपार्जन हेतु इन्होनें कृषि एवं पशुपालन का व्यवसाय अपना लिया इनका इतिहास बहुत ही संघर्षपूर्ण रहा है अलग-अलग कालखंडों में इनकी सामाजिक स्थिति अलग -अलग रही है प्राचीन काल में ये क्षत्रिय वर्ण के अंतर्गत आते थेपरन्तु कालांतर में आर्थिक स्थिति ख़राब हो जाने एवं पशुपालन व्यवसाय के अपनाने के कारण इन्हें शुद्र भी कहा गया है इस जाति का गौपालन के साथ पुराना रिश्ता रहा है | अहीरों की तीन मुख्य शाखाएं है – यदुवंशी,नंदवंशी एवं ग्वालवंशी |
      अहीरग्वालागोप आदि यादव के पर्यायवाची है पाणिनीकौटिल्य एवं पंतजलि के अनुसार अहीर जाति के लोग हिन्दू धर्म के भागवत संप्रदाय के अनुयायी हैं 
अमरकोष मे गोप शब्द के अर्थ गोपालगोसंख्यगोधुकआभीरवल्लबग्वाला व अहीर आदि बताये गए हैं। प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश के अनुसार भी अहिरअहीरआभीर व ग्वाला समानार्थी शब्द हैं। हिन्दी क्षेत्रों में अहीरग्वाला तथा यादव शब्द प्रायः परस्पर समानार्थी माने जाते हैं। वे कई अन्य नामो से भी जाने जाते हैंजैसे कि गवली, घोसी या घोषी, तथा बुंदेलखंड मे दौवा अहीर।
      गंगाराम गर्ग के अनुसार अहीर प्राचीन अभीर समुदाय के वंशज हैंजिनका वर्णन महाभारत तथा टोलेमी के यात्रा वृतान्त में भी किया गया हैउनके अनुसार अहीर संस्कृत शब्द अभीर का प्राकृत रूप हैअभीर का शाब्दिक अर्थ होता है- निर्भय या निडरवे बताते हैं की बर्तमान समय में भी बंगाली एवं मराठी भाषा में अहीर को अभीर ही कहा जाता है|
अहीरों की ऐतिहासिक उत्पत्ति को लेकर विभिन्न इतिहासकर एकमत नहीं हैं। परंतु महाभारत या श्री मदभागवत गीता के युग मे भी यादवों के आस्तित्व की अनुभूति होती है तथा उस युग मे भी इन्हें आभीरअहीरगोप या ग्वाला ही कहा जाता था।[20] कुछ विद्वान इन्हे भारत मे आर्यों से पहले आया हुआ बताते हैंपरंतु शारीरिक गठन के अनुसार इन्हें आर्य माना जाता है।[21] 
पौराणिक दृष्टि सेअहीर या आभीर यदुवंशी राजा आहुक के वंशज है। संगम तंत्र मे उल्लेख मिलता है कि राजा ययाति के दो पत्नियाँ थीं-देवयानी व शर्मिष्ठा। देवयानी से यदु व तुर्वशू नामक पुत्र हुये। यदु के वंशज यादव कहलाए। यदुवंशीय भीम सात्वत के वृष्णि आदि चार पुत्र हुये व इन्हीं की कई पीढ़ियों बाद राजा आहुक हुयेजिनके वंशज आभीर या अहीर कहलाए।[22]
आहुक वंशात समुद्भूता आभीरा इति प्रकीर्तिता।(पृष्ठ 164)
इस पंक्ति से स्पष्ट होता है कि यादव व आभीर मूलतः एक ही वंश के क्षत्रिय थे तथा "हरिवंश पुराण" मे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।[23]
ऐतिहासिक दृष्टिकोण सेअहीरों ने 108 AD॰ मे मध्य भारत मे स्थित 'अहीर बाटक नगरया 'अहीरोराव उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले मे 'अहिरवाड़ाकी नीव रखी थी। रुद्रमूर्ति नामक अहीर अहिरवाड़ा का सेनापति था जो कालांतर मे राजा बना। माधुरीपुत्रईश्वरसेन व शिवदत्त इस बंश के मशहूर राजा हुयेजो बाद मे यादव राजपूतो मे सम्मिलित हो गये।[1]
तमिल भाषा के एक- दो विद्वानों को छोडकर शेष सभी भारतीय विद्वान इस बात से सहमत हैं कि अहीर शब्द संस्कृत के आभीर शब्द का तद्भव रूप है।[12] आभीर (हिंदी अहीर) एक घुमक्कड़ जाति थी जो शकों की भांति बाहर से हिंदुस्तान में आई।[13]
आभीरों को म्लेच्छ देश में निवास करने के कारण अन्य स्थानीय आदिम जातियों के साथ म्लेच्छों की कोटि में रखा जाता था तथा वृत्य क्षत्रिय कहा जाता था।[14] महाभारत में भी युद्धप्रियघुमक्कड़गोपाल अभीरों का उल्लेख मिलता है।[15] आभीरों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में पाया जाता है। शक राजाओं की सेनाओं में ये लोग सेनापति के पद पर नियुक्त थे। आभीर राजा ईश्वरसेन का उल्लेख नासिक के एक शिलालेख में मिलता है। ईस्वी सन्‌ की चौथी शताब्दी तक अभीरों का राज्य रहा। अंततोगत्वा कुछ अभीर राजपूत जाति में अंतर्मुक्त हुये व कुछ अहीर कहलाएजिन्हें राजपूतों सा ही योद्धा माना गया।[16]
आजकल की अहीर जाति ही प्राचीन काल के आभीर हैं।[13] सौराष्ट्र के क्षत्रप शिलालेखों में भी प्रायः आभीरों का वर्णन मिलता है। पुराणों व बृहतसंहिता के अनुसार समुद्रगुप्त काल में भी दक्षिण में आभीरों का निवास था।[17] उसके बाद यह जाति भारत के अन्य हिस्सों में भी बस गयी। मध्य प्रदेश के अहिरवाड़ा को भी आभीरों ने संभवतः बाद में ही विकसित किया। राजस्थान में आभीरों के निवास का प्रमाण जोधपुर शिलालेख (संवत 918) में मिलता है,जिसके अनुसार आभीर अपने हिंसक दुराचरण के कारण निकटवर्ती इलाकों के निवासियों के लिए आतंक बने हुये थे।[18]
यद्यपि पुराणों में वर्णित अभीरों की विस्तृत संप्रभुता 6ठवीं शताब्दी तक नहीं टिक सकी,परंतु बाद के समय में भी आभीर राजकुमारों का वर्णन मिलता हैहेमचन्द्र के "दयाश्रय काव्य" में जूनागढ़ के निकट वनथली के चूड़ासम राजकुमार गृहरिपु को यादव व आभीर कहा गया है। भाटों की श्रुतियों व लोक कथाओं में आज भी चूड़ासम "अहीर राणा" कहे जाते हैं। अंबेरी के शिलालेख में सिंघण के ब्राह्मण सेनापति खोलेश्वर द्वारा आभीर राजा के विनाश का वर्णन तथा खानदेश में पाये गए गवली (ग्वाला) राज के प्राचीन अवशेषों जिन्हें पुरातात्विक रूप से देवगिरि के यादवों के शासन काल का माना गया है। यह सभी प्रमाण इस तथ्य को बल देते हैं की आभीर यादवों से संबन्धित थे। आज तक अहीरों में यदुवंशी अहीर नामक उप जाति का पाया जाना भी इसकी पुष्टि करता है।[19]
भिन्न – भिन्न राज्यों एवं क्षेत्रों में इन्हें भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है
1.      गुजरात – अहीरनंदवंशीपरथारियासोराथियापंचोलीमस्चोइय
2.      पंजाबहरियाणा एवं दिल्ली – अहीरसैनीरावयादवहरल
3.      राजस्थान – अहीरयादव
4.      उत्तर प्रदेशमध्य प्रदेशबिहारझारखण्ड और छत्तीसगढ़ – अहीरयादवमहाकुल,
  ग्वालागोपकिसनौतमंझारौठगोरियागौरभुर्तिया,राउतथेटवाररावघोषी आदि
5.      प बंगाल एवं उड़ीसा – घोषग्वालासदगोपयादवप्रधान,
6.      हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड – यादवरावत
7.      महाराष्ट्र – यादवगवलीगोल्लाअहीरखेदकर
8.      कर्नाटक – गोल्लाग्वालायादव
9.      आंध्रप्रदेश – गोल्लायादव
10.   तमिलनाडु – कोनारआयरमायरईडैयरनायरइरुमानयादववदुगा आयर्स
11.   केरल – मनियानीकोलायणउरली नायरएरुवाननायर
मणियानीकोलायणआयरइरुवान 
      मणियानी क्षत्रिय नैयर जाति की एक उप जाति है केरल में यादवों को मणियानी या कोलायण कहा जाता है | मणियानी समुदाय मंदिर निर्माण कला में निपुण माने जाते हैं मणि (घंटी) एवं अणि (काँटी) के उपयोग के कारणजो मंदिर निर्माण हेतु मुख्य उपकरण हैये मणियानी कहलाये दूसरी मान्यता के अनुसारभगवान श्री कृष्ण के स्यमन्तक मणि के कारण इन्हें मणियानी कहा जाता हैपौराणिक मान्यताओं के अनुसार ये अगस्त्य ऋषि के साथ द्वारिका से केरल आये|
कोलायण एवं इरुवान यादवों के दो मुख्य गोत्र हैयादवों को यहाँ आयरमायर तथा कोलायण भी कहा जाता हैकेरल के यादवों को व्यापक रूप से नैयरनायर एवम उरली नैयर भी कहा जाता है |
      मंदिर निर्माण में महारत हासिल होने के कारण उत्तरी मालाबार क्षेत्र के कोलाथिरी राजाओं ने कोलायण कुल के लोगों को मणियानी की उपाधि प्रदान की|
कोनारइडैयरआयर 
तमिलनाडु में यादवों को कोनारइडैयरआयरइदयनगोल्ला (तेलगु भाषी) आदि नाम से जाना जाता हैतमिल भाषा में कोण का अर्थ – राजा एवं चरवाहा होता है 1921 की जनगणना में तमिलनाडु के यादवों को इदयन कहा गया है|
2.      गड़ेरियाकुरुबाधनगर  - कुरुबा का अर्थ होता है – योद्धा एवं विश्वसनीय व्यक्ति ब्रिटिश इतिहासकार रिनाल्ड एडवर्ड एन्थोवें के अनुसार कुरुमादा जाति भी अहीर जाति का एक हिस्सा है| आईने-ए-अकबरी में धनगर को एक साहसी एवं शक्तिशाली जाति बताया गया है,जो किला बनाने में निपुण है तथा अपने क्षेत्र एवं राज्य पर शासन करते हैंधांगर की चार शाखाएं हैं – (1) हतकर – भेडपालक या गड़ेरिया (2) अहीर – गौपालक (3) महिषकर भैंस पालक और (4) खेतकर – उन एवं कम्बल बुनने वालेभेड़ पालन से जुड़े यादवों को गड़ेरियाकुरुबा या धनगर कहा जाता है इंदौर का होलकर वंश इसी महान धनगर जाति से आते थेइस जाति का भी अपना अलग सामाजिक एवं जातिगत संगठन है |आन्ध्रप्रदेशमहाराष्ट्रतमिलनाडु आदि राज्यों में कुरुबा / धनगर एवं अहीर जाति को एक ही माना जाता हैपरन्तु कर्नाटक एवं अन्य कुछ राज्यों में कुरुबा एवं अहीर जाति के बीच एकता और सामंजस्य का घोर अभाव है कर्णाटक के मुख्यमंत्री एस सिद्धारमैयाकेंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेयसामाजिक कार्यकर्त्ता अन्ना हजारे इसी कुरुबा समाज से आते हैमहान कवि कालिदास एवं संत कनकदास भी इसी समाज से आते हैं |
            इस जाति को आन्ध्रप्रदेश, कर्णाटक, तमिलनाडु आदि प्रदेशों में कुरुबाकुरुम्बार,कुरुमा, गुजरात में भरवाडउत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में पालबघेल, होलकर तथा महाराष्ट्र में धनगर आदि नाम से भी जाना जाता है |
3. यदुवंशी राजपूत - भारत में छठी सदी या उसके बाद राज करने वाले यादव राजाओं के वंशज यदुवंशी राजपूत के नाम से जाने जाते हैं चूँकि उनका शादी -ब्याह और उठना बैठना ज्यादातर अन्य राजपूत जातियों (सूर्यवंशीअग्निवंशी चंद्रवंशी राजपूतों) के साथ ही रहा है इसलिए सामाजिक तौर पर यदुवंशी राजपूत आज के समय में पूरी तरह से राजपूत जाति में घुल-मिल गए हैं और अपने को सिर्फ राजपूत ही मानते हैं तथा यादवों के साथ उनका सामाजिक एवं राजनैतिक सम्बन्ध न के बराबर है यादव जाति में उनकी गणना करना अपने एवं अपने समाज को भ्रम में रखने के सामान है यदुवंशी राजपूत के अंतर्गत जडेजाचुडासमा,गायकवाडजाधववाडियारसैनीसोलासकरकलचुरीजैसलमेर के भाटी राजपूत आदि जाति आती है |
मध्य युग में यादव राजाओं का एक समूह मराठों में, दूसरा समूह जाटों में और तीसरा समूह राजपूतों में विलीन हो गए |
किद्वंतियों के अनुसारकरौली रियासत की स्थापना भगवान श्री कृष्ण के 88वीं पीढ़ी के राजाबिजल पाल जादों द्वारा 995 ई० में की गई थी करौली का किला 1938 ई० तक राजपरिवार का सरकारी निवास था करौली राज परिवार के सदस्य अपने को श्री कृष्ण के वंशज मानते है और वे जादौन राजपूत कहलाते हैं |
गायकवाड़गायकवार अथवा गायकवाड एक मराठा कुल हैजिसने 18 वीं सदी के मध्य से 1947 तक पश्चिमी भारत के वड़ोदरा या बड़ौदा रियासत पर राज्य किया था गायकवाड़ यदुवंशी श्री कृष्ण के वंशज माने जाते हैं तथा यादव जाति से आते हैं उनके वंश का नाम गायकवाड़ – गाय और कवाड़ (दरवाजा) के मेल से बना है |
      नवानगर रियासत कच्छ की खाड़ी के दक्षिण में काठियावाड़ क्षेत्र में अवस्थित था इस रियासत पर 1540 ई० से लेकर 1948 ई० तक जडेजा वंश का शासन रहा इस वंश के शासक अपने को यदुवंशी श्री कृष्ण के वंशज मानते थेइसप्रकार यह वंश यदुवंशी राजपूत कुल के अंतर्गत आता है |
भाटी वंश के  रावल जैसल ने सन् 1156 में जैसलमेर की स्थापना की। ऐसा माना जाता हैं कि महाभारत युद्ध के पश्चात कालान्तर में यादवों का मथुरा से काफ़ी संख्या में बहिर्गमन हुआ। जैसलमेर के भूतपूर्व शासकों के पूर्वज जो अपने को भगवान कृष्ण के वंशज मानते हैंसंभवता छठी शताब्दी में जैसलमेर के भूभाग पर आ बसे थे। कालांतर में जैसलमेर के भाटी राजपरिवार के सदस्य राजपूत जाति में विलीन हो गए | इसी प्रकार भरतपुर के यादव शासक भी कालांतर में जाट जाति में शामिल हो गए | पटियाला, नाभा आदि के जादम शासक भी जाट हो गए |
पटियाला के महधिराज का तो विरुद्ध ही था: "यदुकुल अवतंशभट्टी भूषण |"
      देवगिरि के सेवुना या यादव राजाओं के वंशज जाधव कहलाते हैं जाधव मराठा कुल के अंतर्गत आता है वर्त्तमान में ये अपने आप को यदुवंशी मराठा कहते हैं जमीनी स्तर पर ये महाराष्ट्र के अहीरगवली या धनगर से अपने के भिन्न मानते हैं |
      सैनी  भारत की एक योद्धा जाति है | सैनीजिन्हें पौराणिक साहित्य में शूरसैनी के रूप में भी जाना जाता हैउन्हें अपने मूल नाम के साथ केवल पंजाब और पड़ोसी राज्य हरियाणाजम्मू और कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में पाया जाता है. वे अपना उद्भव यदुवंशी सूरसेन वंश से देखते हैंजिसकी उत्पत्ति यादव राजा शूरसेन से हुई थी जो कृष्ण और पौराणिक पाण्डव योद्धाओंदोनों के दादा थे. सैनीसमय के साथ मथुरा से पंजाब और आस-पास की अन्य जगहों पर स्थानांतरित हो गए.
प्राचीन ग्रीक यात्री और भारत में राजदूतमेगास्थनीज़ ने भी इसका परिचय सत्तारूढ़ जाति के रूप में दिया था तथा वह इसके वैभव के दिनों में भारत आया था जब इनकी राजधानी मथुरा हुआ करती थी. एक अकादमिक राय यह भी है कि सिकंदर महान के शानदार प्रतिद्वंद्वी प्राचीन राजा पोरसइसी यादव कुल के थे. मेगास्थनीज़ ने इस जाति को सौरसेनोई के रूप में वर्णित किया है.
इससे स्पष्ट है कि कृष्णराजा पोरसभगत ननुआभाई कन्हैया और कई अन्य ऐतिहासिक लोग सैनी भाईचारे से संबंधित थे" डॉ. प्रीतम सैनीजगत सैनी: उत्पत्ति आते विकास 26-04, -2002, प्रोफेसर सुरजीत सिंह ननुआमनजोत प्रकाशनपटियाला, 2008

यादव जाति की उत्पत्ति
      पौराणिक ग्रंथोंपाश्चात्य साहित्यप्राचीन एवं आधुनिक भारतीय साहित्यउत्खनन से प्राप्त सामग्री तथा विभिन्न शिलालेखों और अभिलेखों के विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है के यादव जाति के उत्पति के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित है धार्मिक एवं पौराणिक मान्यताओं एवं हिन्दू ग्रन्थों के अनुसार यादव जाति का उद्भव पौराणिक राजा यदु से हुई है जबकि भारतीय व पाश्चात्य साहित्य एवं पुरातात्विक सबूतों के अनुसार प्राचीन आभीर वंश से यादव (अहीर) जाति की उत्पति हुई है इतिहासविदों के अनुसार आभीर का ही अपभ्रंश अहीर है |
      हिन्दू महाकाव्य महाभारत’ में यादव एवं आभीर (गोप) शब्द का समानांतर उल्लेख हुआ है जहाँ यादव को चद्रवंशी क्षत्रिय बताया गया है वहीँ आभीरों का उल्लेख शूद्रों के साथ किया गया है पौराणिक ग्रन्थ विष्णु पुराण’, हरिवंश पुराण’ एवं पदम् पुराण’ में यदुवंश का विस्तार से वर्णन किया गया है |
      यादव वंश प्रमुख रूप से आभीर (वर्तमान अहीर)अंधकवृष्णि तथा सात्वत नामक समुदायो से मिलकर बना थाजो कि भगवान कृष्ण के उपासक थे। यह लोग प्राचीन भारतीय साहित्य मे यदुवंश के एक प्रमुख अंग के रूप मे वर्णित है। प्राचीनमध्यकालीन व आधुनिक भारत की कई जातियाँ तथा राज वंश स्वयं को यदु का वंशज बताते है और यादव नाम से जाने जाते है।
जयंत गडकरी के कथनानुसार, " पुराणों के विश्लेषण से यह निश्चित रूप से सिद्ध होता है कि अंधकवृष्णिसात्वत तथा अभीर (अहीर) जातियो को संयुक्त रूप से यादव कहा जाता था जो कि श्रीक़ृष्ण की उपासक थी। परंतु पुराणो में मिथक तथा दंतकथाओं के समावेश से इंकार नहीं जा सकताकिन्तु महत्वपूर्ण यह है कि पौराणिक संरचना के तहत एक सुदृढ़ सामाजिक मूल्यो की प्रणाली प्रतिपादित की गयी थी|
लुकिया मिचेलुत्ती के यादवों पर किए गए शोधानुसार -
यादव जाति के मूल मे निहित वंशवाद के विशिष्ट सिद्धांतानुसारसभी भारतीय गोपालक जातियाँउसी यदुवंश से अवतरित है जिसमे श्रीक़ृष्ण (गोपालक व क्षत्रिय) का जन्म हुआ था .....उन लोगों मे यह दृढ विश्वास है कि वे सभी श्रीक़ृष्ण से संबन्धित है तथा वर्तमान की यादव जातियाँ उसी प्राचीन वृहद यादव सम समूह से विखंडित होकर बनी हैं।
 क्रिस्टोफ़ जफ़्फ़ेर्लोट के अनुसार,
यादव शब्द कई जातियो को आच्छादित करता है जो मूल रूप से अनेकों नामों से जाती रही हैहिन्दी क्षेत्रपंजाब व गुजरात में- अहीरमहाराष्ट्रगोवाआंध्र व कर्नाटक में-गवलीजिनका सामान्य पारंपरिक कार्य चरवाहेगोपालक व दुग्ध-विक्रेता का था।
लुकिया मिचेलुत्ती के विचार से -
यादव लगातार अपने जातिगत आचरण व कौशल को अपने वंश से जोड़कर देखते आए हैं जिससे उनके वंश की विशिष्टता स्वतः ही व्यक्त होती है। उनके लिए जाति मात्र पदवी नहीं है बल्कि रक्त की गुणवत्ता हैऔर ये दृष्टिकोण नया नही है। अहीर (वर्तमान मे यादव) जाति की वंशावली एक सैद्धान्तिक क्रम के आदर्शों पर आधारित है जो उनके पूर्वजगोपालक योद्धा श्री कृष्ण पर केन्द्रित हैजो कि एक क्षत्रिय थे।
सैन्य वर्ण ( मार्शल रेस )
      वर्ष 1920 मे भारत मे अंग्रेज़ी हुकूमत ने यदुवंशी अहीर जाति को सैन्य वर्ण ( मार्शल रेस ) के रूप मे सेना मे भर्ती हेतु मान्यता दीवे 1898 से सेना में भर्ती होते रहे थे। तब ब्रिटिश सरकार ने अहीरों की चार कंपनियाँ बनायीं थीइनमें से दो 95वीं रसेल इंफंटरी में थीं। 1962 के भारत चीन युद्ध के दौरान 13 कुमायूं रेजीमेंट की अहीर कंपनी द्वारा रेजंगला मोर्चा पर पराक्रम व बलिदान भारत मे आज तक सरहनीय माना जाता है। वे भारतीय सेना की राजपूत रेजीमेंट में भी भागीदार हैं। भारतीय हथियार बंद सेना में आज तक बख्तरबंद कोरों व तोपखानों में अहीरों की एकल टुकड़ियाँ विद्यमान हैं।
उपजातीयां व कुल गोत्र
यादव मुख्यतया यदुवंशीनंदवंशी व ग्वालवंशी उपजातीय नामो से जाने जाते हैअहीर समुदाय के अंतर्गत 20 से भी अधिक उपजातीया सम्मिलित हैं। वे प्रमुखतया ऋषि गोत्र अत्रि से है तथा अहीर उपजातियों मे अनेकों कुल गोत्र है जिनके आधार पर सगोत्रीय विवाह वर्जित है।

इतिहास
      भारत की मौजूदा आर्य क्षत्रिय जातियों में अहीर सबसे पुराने क्षत्रिय हैं। जब तक जाटराजपूतगूजर और मराठा नामों की सृष्टि भी नहीं हुई थीअहीरों का अभ्युदय हो चुका था। ब्रज में अहीरों की एक शाखा गोपों का कृष्ण-काल में जो राष्ट्र थावह प्रजातंत्र प्रणाली द्वारा शासित 'गोपराष्ट्रके नाम से जाना जाता था।
      शूरसेन या मथुरा मंडल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है,भक्तिकाल में ब्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मंडल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश थाजहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है।
      सर्वप्रथम पतंजलि के महाभाष्य में अभीरों का उल्लेख मिलता है। जो ई० पू० 5 वीं शताब्दी में लिखी गई थी वे सिन्धु नदी के निचले काँठे और पश्चिमी राजस्थान में रहते थे।
दूसरे ग्रंथों में आभीरों को अपरांत का निवासी बताया गया है जो भारत का पश्चिमी अथवा 
कोंकण का उत्तरी हिस्सा माना जाता है। 'पेरिप्लसनामक ग्रन्थ तथा टालेमी के यात्रा वृतांत में भी आभीर गण का उल्लेख है। पेरिप्लस और टालेमी के अनुसार सिंधु नदी की निचली घाटी और काठियावाड़ के बीच के प्रदेश को आभीर देश माना गया है।मनुस्मृति में आभीरों को म्लेच्छों की कोटि में रखा गया है।  आभीर देश जैन श्रमणों के विहार का केंद्र था। अचलपुर (वर्तमान एलिचपुरबरार) इस देश का प्रमुख नगर था जहाँ कण्हा (कन्हन) और वेष्णा (बेन) नदियों के बीच ब्रह्मद्वीप नाम का एक द्वीप था। तगरा (तेराजिला उस्मानाबाद) इस देश की सुदंर नगरी थी। आभीरपुत्र नाम के एक जैन साधु का उल्लेख भी जैन ग्रंथों में मिलता है।
आभीरों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में पाया जाता है। शक राजाओं की सेनाओं में ये लोग सेनापति के पद पर नियुक्त थे। आभीर राजा ईश्वरसेन का उल्लेख नासिक के एक शिलालेख में मिलता है। ईस्वी सन्‌ की चौथी शताब्दी तक अभीरों का राज्य रहा।
      आजकल की अहीर जाति ही प्राचीन काल के आभीर हैं। अहीरवाड (संस्कृत में आभीरवारभिलसा औरझांसी के बीच का प्रदेश) आदि प्रदेशों के अस्तित्व से आभीर जाति की शक्ति और सामर्थ्य का पता चलता है। अहीर एक पशुपालक जाति हैजो उत्तरी और मध्य भारतीय क्षेत्र में फैली हुई है। इस जाति के साथ बहुत ऐतिहासिक महत्त्व जुड़ा हुआ हैक्योंकि इसके सदस्य संस्कृत साहित्य में उल्लिखित आभीर के समकक्ष माने जाते हैं।

      कुछ लोग आभीरों को अनार्य कहते हैंपरन्तु 'अहीरकअर्थात आहि तथा हरि अर्थात नाग अर्थात् कृष्ण वर्णी रहे होंगे या अहि काले तथा तेज शक्तिशाली जाति अहीर कहलाई होगी। जब आर्य पश्चिम एशिया पहुंचे तब अहीर (दक्षिण एशियाइ पुरुष/South Asian males) पश्चिम एशिया पर राज्य करते थेउन्होंने आर्य महिलाओं (पश्चिम यूरेशियन महिलाओं) से शादी की और आर्यों की वैदिक सभ्यता का स्विकार कियाईसा की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आभीर राजा पश्चिमी भारत के शक शासकों के अधीन थे। ईसवीं तीसरी शताब्दी में आभीर राजाओं ने सातवाहन राजवंश के पराभव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तम्भ लेख में आभीरों का उल्लेख उन गणों के साथ किया गया हैजिन्होंने गुप्त सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

भारत की मौजूदा आर्य क्षत्रिय(वैदिक क्षत्रिय) जातियों में हट्टीगुर्जर और अभिरा/अहिर(पाल) सबसे पुराने क्षत्रिय हैं। जब तक जाटराजपूतऔर मराठा नामों की सृष्टि भी नहीं हुई थीहट्टी और अहीरों का अभ्युदय हो चुका था।

नेपाल एवं दक्षिण भारत के आधुनिक उत्तखनन से भी स्पष्ट होता है की गुप्त उपाधि अभीर राजाओं में सामान्य बात थीइतिहासकार डी आर. रेग्मी का स्पष्ट मत है की उत्तर भारत के गुप्त शासक नेपाल के अभीर गुप्त राजाओं के वंशज थे डॉ बुध प्रकाश के मानना है की अभिरों के राज्य अभिरायाणा से ही इस प्रदेश का नाम हरियाणा पड़ाइस क्षेत्र के प्राचीन निवासी अहीर ही हैंमुग़ल काल तक अहीर इस प्रदेश के स्वतन्त्र शासक रहे हैं

अभीर या सुराभीर की ओर से विश्व को कृषिशास्त्रगौवंशपालन या पशुपालन आधारित अर्थतंत्र,भाषा लेखन लिपिचित्र व मूर्तिकलास्थापत्य कला (नगर शैली)नगर रचना (उन्ही के नाम से नगर शब्द)खाध्यपदार्थो मे खमीरिकरण या किण्वन (fermentation) प्रक्रिया की तकनीक (अचारआटा/ब्रेड/नानघोल/batter, सिरकासुरा) इत्यादि जैसी सदैव उपयोगी भेट मिली है जो वर्तमान युग मे भी मानव जीवन और अर्थतन्त्र की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है।

मैक्स मुलरक्रिस्चियन लास्सेनमिसेज मैन्निंग तथा अन्य इतिहासकारों के अनुसार बाइबल मे उल्लेखित अपनी समृद्धि के लिए प्रसिद्ध ओफिर (सोफिर) क्षेत्र और बन्दरगाह भी अभीर (सूराभीर) का ही द्योतक है। ग्रीक भाषा मे ओफिर का अर्थ नाग होता है। हिब्रू भाषा मे अबीर’ ‘Knight’ याने शूरवीर योद्धा या सामंत के अर्थ मे प्रयोग होता है। संस्कृत मे अभीर का अर्थ निडर होता है। भारतवर्ष मे अभीर’ अभीर-वंशी-राजा के अर्थ मे भी प्रयोग हुआ है। आज भी इस्राइल मे ओफिर शीर्ष नाम का प्रयोग होता है। यह जानना भी रसप्रद होगा की कोप्टिक भाषा (मिस्र/इजिप्त) मे सोफिर’ भारतवर्ष के संदर्भ मे प्रयोग होता था।
सोफिर बन्दरगाह से हर तीन साल में क्षेत्र के अभीर राजा सोलोमन को सोनाचाँदीगंधसार (संदल)अनमोल रत्नहाथीदांतवानरमयूरइत्यादि प्राप्त होते थे। इसमे ओफिर पर्वत (वर्तमान मे गुनुङ्ग लेदान पर्वतमुयारमलेशिया-जहा उस काल मे अभीरों का दबदबा था) से भी सोने और अन्य वस्तुओ के प्रेषण आते थे।

अभीर भारत वर्ष के किसी न किसी भूभाग पर निरंतर १२०० वर्ष का दीर्घ कालीन शासन करने वाले एकमात्र राजवंश है। ग्रीक इतिहास मे उल्लेखित अभिरासेस भी अभीर के ही संदर्भ मे है। प्राचीन ग्रीस के रोमनादों या रोमक यानि एलेक्ज़ांड्रिया के साथ भी अभीरो के राजद्वारी संबंध रहे थे।
      सांप्रदायिक सद्भावना सभी अभीर शासकों की लाक्षणिकता रही है। हिन्दू वैदिक संस्कृति मे आस्था रखते हुए भी अभीरों ने राज्य व्यवस्था मे समय समय पर जर्थ्रोस्टिबौद्धजैन सम्प्रदायो को भी पर्याप्त महत्व दिया है। भारतवर्ष मे त्रिकुटक वंश के अभीर वैष्णव धर्मावलम्बी होने की मान्यता है। शक शिलालेखों मे भी अभीर का उल्लेख मिलता है। अभीरों मे नाग पुजा व गोवंश का विशेष महत्व रहा है। सोलोमन के मंदिरो से लेकर के वर्तमान शिवमंदिरो मे नंदी का विशेष स्थान रहा है। मध्य भारत के अभीर कालचुर्यों का राजचिन्ह भी स्वर्ण-नंदी ही था।
      शक कालीन 102 ई० या 108 ई० के उतखनन से ज्ञात होता है की शक राजाओं के समय अभीर सेना के सेनापति होते थे रेगीनाल्ड एडवर्ड एन्थोवें ने नासिक उत्तखनन के आधार पर बताया है की चौथी सदी में अभीर इस क्षेत्र के राजा थे सम्राट समुद्रगुप्त के समय यानि चतुर्थ शताब्दी के मध्य में अभीर पूर्वी राजपूताना एवं मालवा के शासक थेहेनरी मिएर्स इलियट के अनुसार ईसा संवत के आरम्भ के समय अहीर नेपाल के राजा थे संस्कृत साहित्य अमरकोष में ग्वालगोप एवं बल्लभ को अभीर का पर्यायवाची बताया गया हैहेमचन्द्र रचित द्याश्रय काव्य में जूनागढ़ के निकट अवस्थित वनथली के चुडासमा राजकुमार रा ग्रहरिपू को अभीर एवं यादव दोनों बताया गया हैउस क्षेत्र के जन श्रुतियों में भी चुडासमा को अहीर राणा कहा गया है|
यूनानी राजदूत मैगस्थनीज
यूनानी राजदूत मैगस्थनीज बहुत वर्षों तक चंद्रगुप्त और उसके पुत्र बिंदुसार के दरबारों में रहा । मैगस्थनीज ने भारत की राजनैतिकसामाजिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का विवरण किया , उसका बहुत ऐतिहासिक महत्व है । मूल ग्रंथ वर्तमान समय में अनुपलब्ध हैपरन्तु एरियन नामक एक यूनानी लेखक ने अपने ग्रंथ 'इंडिकामें उसका कुछ उल्लेख किया है । मैगस्थनीज के श्री कृष्णशूरसेन राज्य के निवासीनगर और यमुना नदी के विवरण से पता चलता है कि 2300 वर्ष पूर्व तक मथुरा और उसके आसपास का क्षेत्र शूरसेन कहलाता था । कालान्तर में यह भू-भाग मथुरा राज्य कहलाने लगा था । उस समय शूरसेन राज्य में बौद्ध-जैन धर्मों का प्रचार हो गया था किंतु मैगस्थनीज के अनुसार उस समय भी यहाँ श्री कृष्ण के प्रति बहुत श्रद्धा थी|
मथोरा और क्लीसोबोरा
मैगस्थनीज ने शूरसेन के दो बड़े नगर 'मेथोराऔर 'क्लीसोबोराका उल्लेख किया है । एरियन ने मेगस्थनीज के विवरण को उद्घृत करते हुए लिखा है कि `शौरसेनाइलोग हेराक्लीज का बहुत आदर करते हैं । शौरसेनाई लोगों के दो बडे़ नगर है- मेथोरा [Methora] और क्लीसोबोरा [Klisobora] उनके राज्य में जोबरेसनदी बहती है जिसमें नावें चल सकती है ।प्लिनी नामक एक दूसरे यूनानी लेखक ने लिखा है कि जोमनेस नदी मेथोरा और क्लीसोबोरा के बीच से बहती है ।[प्लिनी-नेचुरल हिस्ट्री 6, 22] इस लेख का भी आधार मेगस्थनीज का लेख ही है ।
टालमी नामक एक अन्य यूनानी लेखक ने मथुरा का नाम मोदुरा दिया है और उसकी स्थिति 125और 20' - 30" पर बताई है । उसने मथुरा को देवताओं की नगरी कहा है ।यूनानी इतिहासकारों के इन मतों से पता चलता है कि मेगस्थनीज के समय में मथुरा जनपद शूरसेन [1] कहलाता था और उसके निवासी शौरसेन कहलाते थेहेराक्लीज से तात्पर्य श्रीकृष्ण से है । शौरसेन लोगों के जिन दो बड़े नगरों का उल्लेख है उनमें पहला तो स्पष्टतःमथुरा ही हैदूसरा क्लीसोबोरा कौन सा नगर थाइस विषय में विद्वानों के विभिन्न मत हैं ।

जनरल एलेक्जेंडर कनिंघम
      जनरल एलेक्जेंडर कनिंघम ने भारतीय भूगोल लिखते समय यह माना कि क्लीसीबोरा नाम वृन्दावन के लिए है । इसके विषय में उन्होंने लिखा है कि कालिय नाग के वृन्दावन निवास के कारण यह नगर `कालिकावर्तनाम से जाना गया । यूनानी लेखकों के क्लीसोबोरा का पाठ वे `कालिसोबोर्कया `कालिकोबोर्तमानते हैं । उन्हें इंडिका की एक प्राचीन प्रति में `काइरिसोबोर्कपाठ मिलाजिससे उनके इस अनुमान को बल मिला ।परंतु सम्भवतः कनिंघम का यह अनुमान सही नहीं है ।
वृन्दावन में रहने वाले के नाग का नामजिसका दमन श्रीकृष्ण ने कियाकालिय मिलता है ,कालिक नहीं । पुराणों या अन्य किसी साहित्य में वृन्दावन की संज्ञा कालियावर्त या कालिकावर्त नहीं मिलती । अगर क्लीसोबोरा को वृन्दावन मानें तो प्लिनी का कथन कि मथुरा और क्लीसोबोरा के मध्य यमुना नदी बहती थीअसंगत सिद्ध होगाक्योंकि वृन्दावन और मथुरा दोनों ही यमुना नदी के एक ही ओर हैं ।
अन्य विद्धानों ने मथुरा को 'केशवपुराअथवा 'आगरा ज़िला का बटेश्वर [प्राचीन शौरीपुर]माना है । मथुरा और वृन्दावन यमुना नदी के एक ओर उसके दक्षिणी तट पर स्थित है जब कि मैगस्थनीज के विवरण के आधार पर 'एरियनऔर 'प्लिनीने यमुना नदी दोनों नगरों के बीच में बहने का विवरण किया है । केशवपुराजिसे श्रीकृष्ण जन्मभूमि के पास का वर्तमान मुहल्ला मल्लपुरा बताया गया हैउस समय में मथुरा नगर ही था । ग्राउस ने क्लीसोवोरा को वर्तमान महावन माना है जिसे श्री कृष्णदत्त जी वाजपेयी ने युक्तिसंगत नहीं बतलाया है ।
कनिंघम ने अपनी 1882-83 की खोज-रिपोर्ट में क्लीसोबोरा के विषय में अपना मत बदल कर इस शब्द का मूलरूप `केशवपुरा'[2] माना है और उसकी पहचान उन्होंने केशवपुरा या कटरा केशवदेव से की है । केशव या श्रीकृष्ण का जन्मस्थान होने के कारण यह स्थान केशवपुरा कहलाता है । कनिंघम का मत है कि उस समय में यमुना की प्रधान धारा वर्तमान कटरा केशवदेव की पूर्वी दीवाल के नीचे से बहती रही होगी और दूसरी ओर मथुरा शहर रहा होगा । कटरा के कुछ आगे से दक्षिण-पूर्व की ओर मुड़ कर यमुना की वर्तमान बड़ी धारा में मिलती रही होगी ।जनरल कनिंघम का यह मत विचारणीय है । यह कहा जा सकता है । कि किसी काल में यमुना की प्रधान धारा या उसकी एक बड़ी शाखा वर्तमान कटरा के नीचे से बहती रही हो और इस धारा के दोनों तरफ नगर रहा होमथुरा से भिन्न `केशवपुरया `कृष्णपुरनाम का नगर वर्तमान कटरा केशवदेव और उसके आस-पास होता तो उसका उल्लेख पुराणों या अन्य सहित्य में अवश्य होता ।
प्राचीन साहित्य में मथुरा का विवरण मिलता है पर कृष्णपुर या केशवपुर नामक नगर का पृथक् उल्लेख कहीं प्राप्त नहीं होता । अत: यह तर्कसम्मत है कि यूनानी लेखकों ने भूलवश मथुरा और कृष्णपुर (केशवपुर) कोजो वास्तव में एक ही थेअलग-अलग लिख दिया है । लोगों ने मेगस्थनीज को बताया होगा कि शूरसेन राज्य की राजधानी मथुरा केशव-पुरी है और भाषा के अल्पज्ञान के कारण सम्भवतः इन दोनों नामों को अलग जान कर उनका उल्लेख अलग-अलग नगर के रूप में किया हो । शूरसेन जनपद में यदि मथुरा और कृष्णपुर नामक दो प्रसिद्ध नगर होते तो मेगस्थनीज के पहले उत्तर भारत के राज्यों का जो वर्णन साहित्य (विशेषकर बौद्ध एवं जैन ग्रंथो) में मिलता हैउसमें शूरसेन राज्य के मथुरा नगर का विवरण है ,राज्य के दूसरे प्रमुख नगर कृष्णपुर या केशवपुर का भी वर्णन मिलता । परंतु ऐसा विवरण नहीं मिलता । क्लीसोबोरा को महावन मानना भी तर्कसंगत नहीं है [3]
अलउत्वी के अनुसार महमूद ग़ज़नवी के समय में यमुना पार आजकल के महावन के पास एक राज्य की राजधानी थीजहाँ एक सुदृढ़ दुर्ग भी था । वहाँ के राजा कुलचंद ने मथुरा की रक्षा के लिए महमूद से महासंग्राम किया था । संभवतः यह कोई पृथक् नगर नहीं थावरन वह मथुरा का ही एक भाग था । उस समय में यमुना नदी के दोनों ही ओर बने हुए मथुरा नगर की बस्ती थी[यह मत अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है] । चीनी यात्री फ़ाह्यान और हुएन-सांग ने भी मथुरा नदी के दोनों ही ओर बने हुए बौद्ध संघारामों का विवरण किया है । इस प्रकार मैगस्थनीज का क्लीसोवोरा [कृष्णपुरा] कोई प्रथक नगर नहीं वरन उस समय के विशाल मथुरा नगर का ही एक भाग थाजिसे अब गोकुल-महावन के नाम से जाना जाता है । इस संबंध में श्री कृष्णदत्त वाजपेयी के मत तर्कसंगत लगता है – "प्राचीन साहित्य में मधुरा या मथुरा का नाम तो बहुत मिलता है पर कृष्णापुर या केशवपुर नामक नगर का पृथक् उल्लेख कहीं नहीं प्राप्त होता है । अतः ठीक यही जान पड़ता है कि यूनानी लेखकों ने भूल से मथुरा और कृष्णपुर [केशवपुर] कोजो वास्तव में एक ही थेअलग-अलग लिख दिया है । भारतीय लोगों ने मैगस्थनीज को बताया होगा कि शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा केशवपुरी है । उसने उन दोनों नामों को एक दूसरे से पृथक् समझ कर उनका उल्लेख अलग-अलग नगर के रूप में किया होगा । यदि शूरसेन जनपद में मथुरा और कृष्णपुर नाम के दो प्रसिद्ध नगर होतेतो मेगस्थनीज के कुछ समय पहले उत्तर भारत के जनपदों के जो वर्णन भारतीय साहित्य [विशेष कर बौद्ध एवं जैन ग्रंथो] में मिलते हैउनमें मथुरा नगर के साथ कृष्णापुर या केशवपुर का भी नाम मिलता है ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
1.    लैसन ने भाषा-विज्ञान के आधार पर क्लीसोबोरा का मूल संस्कृत रूप `कृष्णपुर'माना है । उनका अनुमान है कि यह स्थान आगरा में रहा होगा । (इंडिश्चे आल्टरटुम्सकुण्डेवॉन 1869, जिल्द 1, पृष्ठ 127, नोट 3 
2.    श्री एफएसग्राउज का अनुमान है कि यूनानियों का क्लीसोबोरा वर्तमान महावन हैदेखिए एफएसग्राउज-मथुरा मॅमोयर (द्वितीय सं0, इलाहाबाद1880), पृ0 257-8 फ्रांसिस विलफोर्ड का मत है कि क्लीसोबोरा वह स्थान है जिसे मुसलमान `मूगूनगरऔर हिंदू `कलिसपुरकहते हैं-एशियाटिक रिसचेंज (लंदन, 1799), जि0 5, पृ0 270। परंतु उसने यह नहीं लिखा है कि यह मूगू नगर कौन सा है। कर्नल टॉड ने क्लीसोबोरा की पहचान आगरा ज़िले के बटेश्वर से की है (ग्राउजवही पृ0 258)
3.   अर्रियनदिओदोरुसतथा स्ट्रैबो के अनुसार मेगास्थनीज़ ने एक भारतीय जनजाति का वर्णन किया है जिसे उसने सौरसेनोई कहा हैजो विशेष रूप से हेराक्लेस की पूजा करते थेऔर इस देश के दो शहर थेमेथोरा और क्लैसोबोराऔर एक नाव्य नदी,. जैसा कि प्राचीन काल में सामान्य था,यूनानी कभी कभी विदेशी देवताओं को अपने स्वयं के देवताओं के रूप में वर्णित करते थेऔर कोई शक नहीं कि सौरसेनोई का तात्पर्य शूरसेन से हैयदु वंश की एक शाखा जिसके वंश में कृष्ण हुए थे; हेराक्लेस का अर्थ कृष्णया हरि-कृष्ण: मेथोरा यानि मथुराजहां कृष्ण का जन्म हुआ थाजेबोरेस का अर्थ यमुना से है जो कृष्ण की कहानी में प्रसिद्ध नदी है. कुनिटास कर्तिउस ने भी कहा है कि जब सिकंदर महान का सामना पोरस से हुआतो पोरस के सैनिक अपने नेतृत्व में हेराक्लेस की एक छवि ले जा रहे थे. कृष्ण: एक स्रोत पुस्तक, 5 पी,एडविन फ्रांसिस ब्रायंटऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस अमेरिका, 2007


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      यादव भारतवर्ष के प्राचीनतम जातियों में से एक हैजो क्षत्रिय राजा यदु के वंशज हैं|यदुकुल में ही हैहयतालजंघअभीरवृष्णिअन्धकसात्वतकूकुरभोजचेदी नामक वंशों का उदय हुआ | भारतीय साहित्य एवं पुराणों के अध्यययन के आधार पर महाभारत काल एवं उसके पश्चात यादव वंश कि निम्न शाखाएं भारत में निवास करती थी -
हैहय वंश – 
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में हैहय राजाओं का वर्णन हैजो अवन्ती प्रदेश के राजा थे तथा उनकी राजधानी महिष्मती थी पुराणों में हैहय वंश के सबसे प्रतापी राजा कार्तवीर्य अर्जुन का उल्लेख हैऋग्वेद में उसे चक्रवर्ती सम्राट कहा गया है पुराणों में हैहय के पांच कुल – वीतिहोत्र,शर्यातभोजअवन्ती तथा तुन्डिकर का उल्लेख हैजो सामूहिक रूप से तालजंघ कहलाते थे |वीतिहोत्र कुल का अंतिम शासक रिपुंजय था |
चेदी वंश 
यदु के दुसरे पुत्र क्रोष्टा के वंशज क्रोष्टा यादव कहलाये क्रोष्टा के वंश में ही विदर्भ वंश की उत्पति हुईकालांतर में विदर्भ वंश से ही चेदि वंश की उत्पति हुई|
चेदि आर्यों का एक अति प्राचीन वंश है। ऋग्वेद की एक दानस्तुति में इनके एक अत्यंत शक्तिशाली नरेश कशु का उल्लेख है। ऋग्वेदकाल में ये संभवत: यमुना और विंध्य के बीच बसे हुए थे।
पुराणों में वर्णित परंपरागत इतिहास के अनुसार यादवों के नरेश विदर्भ के तीन पुत्रों में से द्वितीय कैशिक चेदि का राजा हुआ और उसने चेदि शाखा का स्थापना की।चेदिराज दमघोष एवं शिशुपाल इस वंश के प्रमुख शासक थे चेदि राज्य आधुनिक बुंदेलखंड में स्थित रहा होगा और यमुना के दक्षिण में चंबल और केन नदियों के बीच में फैला रहा होगा। कुरु के सबसे छोटे पुत्र सुधन्वन्‌ के चौथे अनुवर्ती शासक वसु ने यादवों से चेदि जीतकर एक नए राजवंश की स्थापना की। उसके पाँच में से चौथे (प्रत्यग्रह) को चेदि का राज्य मिला। महाभारत के युद्ध में चेदि पांडवों के पक्ष में लड़े थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के 16 महाजनपदों की तालिका में चेति अथवा चेदि का भी नाम आता है। चेदि लोगों के दो स्थानों पर बसने के प्रमाण मिलते हैं - नेपाल में और बुंदेलखंड में। इनमें से दूसरा इतिहास में अधिक प्रसिद्ध हुआ। मुद्राराक्षस में मलयकेतु की सेना में खशमगध,यवनशक हूण के साथ चेदि लोगों का भी नाम है।
भुवनेश्वर के समीप उदयगिरि पहाड़ी पर हाथीगुंफा के अभिलेख से कलिंग में एक चेति (चेदि) राजवंश का इतिहास ज्ञात होता है। यह वंश अपने को प्राचीन चेदि नरेश वसु (वसु-उपरिचर) की संतति कहता है। कलिंग में इस वंश की स्थापना संभवत:महामेघवाहन ने की थी जिसके नाम पर इस वंश के नरेश महामेघवाहन भी कहलाते थे। खारवेलजिसके समय में हाथीगुंफा का अभिलेख उत्कीर्ण हुआ इस वंश की तीसरी पीढ़ी में था। महामेघवाहन और खारवेल के बीच का इतिहास अज्ञात है। महाराज वक्रदेव,जिसके समय में उदयगिरि पहाड़ी की मंचपुरी गुफा का निचला भाग बनाइस राजवंश की संभवत: दूसरी पीढ़ी में था और खारवेल का पिता था।
      खारवेल इस वंश और कलिंग के इतिहास के ही नहींपूरे प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख शासकों में से है। हाथीगुंफा के अभिलेख के विवरण में अतिशयोक्ति की संभावना के पश्चात्‌ भी जो शेष बचता हैउससे स्पष्ट है कि खारवेल असाधारण योग्यता का सेना नायक था और उसने कलिंग की जैसी प्रतिष्ठा बना दी वैसी बाद की कई शताब्दियों संभव नहीं हुई।
खारवेल के राज्यकाल की तिथि अब भी विवाद का विषय हेजिसमें एक मत ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के पूर्वार्ध के पक्ष में है किंतु खारवेल को ईसा पूर्व पहली शताब्दी के उत्तरार्ध में रखनेवाले विद्वानों की संख्या बढ़ रहीं है।

वृष्णि कुल – 
सात्वत के पुत्र वृष्णि के वंशज वृष्णिवंशी यादव अथवा वार्ष्णेय कहे जाते हैं इसी वंश में राजा शूरसेनवसुदेवदेवभागश्री कृष्णबलरामउद्धवअक्रूरसात्यिकीकृतवर्मा आदि प्रतापी राजा एवं शूरवीर योद्धा हुए 
अन्धक वंश -
क्रोष्टा के कुल में राजा सात्वत का जन्म हुआसात्वत के सात पुत्रों में एक राजा अन्धक थे|जिनके वंशज अन्धक वंशी कहलायेइसी वंश में शूरसेन देश के राजा उग्रसेनकंसदेवक तथा श्री कृष्ण की माता देवकी का जन्म हुआ|
भोज वंश 
सात्वत के दुसरे पुत्र महाभोज के वंशज भोजवंशी यादव कहलायेइसी वंश में राजा कुन्तिभोज हुएजिनके निःसंतान होने पर राजा शूरसेन ने अपनी पुत्री पृथा (कुंती ) को उसे गोद दे दिया|
विदर्भ वंश -
क्रोष्टा के वंश में ही विदर्भ वंश की उत्पति हुई ज्यामघ के पुत्र विदर्भ ने दक्षिण भारत में विदर्भ राज्य की स्थापना की शैब्या के गर्भ से विदर्भ के तीन पुत्र हुए – कुशक्रथ और रोमपाद महाभारत काल में विदर्भ देश में भीष्मक नामक एक बड़े यशस्वी राजा थे उनके रुक्मरुक्मरथरुक्मवाहुरुक्मेश और रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र थे और रुक्मिणी नामक एक पुत्री भी थी महाराज भीष्मक के घर नारद आदि महात्माजनों का आना - जाना रहता था |महात्माजन प्रायः भगवान श्रीकृष्ण के रूप-रंगपराक्रमगुणसौन्दर्यलक्ष्मी वैभव आदि की प्रशंसा किया करते थे राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण से हुआ था |रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ हुए मत्स्य पुराण एवं वायु पुराण में उन्हें दक्षिणापथ वासी कहा गया हैलोपामुद्रा विदर्भ की ही राजकुमारी थीजिनका विवाह अगस्त्य ऋषि के संग हुआ था |

स्रोत : उमेश यादव के ब्लॉग से https://plus.google.com/110777012718923892801