शुक्रवार, 26 मई 2017

भाग्यशाली कौन ?

भाग्यशाली कौन?
Who are lucky

हम अक्सर धन वान व्यक्ति को भाग्यशाली, प्रभावशाली, अन्नदाता, "महान" जैसे शब्दों से आपसी चर्चा में संबोधित करते रहते हैं, परन्तु मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के अनुसार कह सकता हूँ, "भाग्यशाली" वे हो सकते हैं, जिनको सब कुछ मिला होता है ! "विशेष भाग्यशाली" वे होते हैं जिनको जो मिला होता है, उसको और अच्छा बना लेते हैं ! परन्तु "महान" तो वे ही हो सकते हैं, जो अपने साथ औरों का भाग्य बदल कर उसे भी भाग्यशाली बना देते हैं !!

श्री बी. एल. सिंह यादव जी के फेसबुक वाल से : 
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मंगलवार, 23 मई 2017

Yuva Yaduvanshi: सपने हक़ीक़त में सच हो सकते हैं

Yuva Yaduvanshi: सपने हक़ीक़त में सच हो सकते हैं

प्यार और स्नेह नया जीवन दे सकता है

एक छोटे से शहर के प्राथमिक स्कूल में कक्षा 5 की शिक्षिका थीं।
उनकी एक आदत थी कि वह कक्षा शुरू करने से पहले हमेशा "आई लव यू ऑल" बोला करतीं। मगर वह जानती थीं कि वह सच नहीं कहती । वह कक्षा के सभी बच्चों से उतना प्यार नहीं करती थीं।
कक्षा में एक ऐसा बच्चा था जो उनको एक आंख नहीं भाता। उसका नाम राजू था। 


राजू मैली कुचेली स्थिति में स्कूल आजाया करता है। उसके बाल खराब होते, जूतों के बन्ध खुले, शर्ट के कॉलर पर मेल के निशान। । । व्याख्यान के दौरान भी उसका ध्यान कहीं और होता।

मिस के डाँटने पर वह चौंक कर उन्हें देखता तो लग जाता..मगर उसकी खाली खाली नज़रों से उन्हें साफ पता लगता रहता.कि राजू शारीरिक रूप से कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद भी मानसिक रूप से गायब हे.धीरे धीरे मिस को राजू से नफरत सी होने लगी। क्लास में घुसते ही राजू मिस की आलोचना का निशाना बनने लगता। सब बुराई उदाहरण राजू के नाम पर किये जाते. बच्चे उस पर खिलखिला कर हंसते.और मिस उसको अपमानित कर के संतोष प्राप्त करतीं। राजू ने हालांकि किसी बात का कभी कोई जवाब नहीं दिया था।
मिस को वह एक बेजान पत्थर की तरह लगता जिसके अंदर महसूस नाम की कोई चीज नहीं थी। प्रत्येक डांट, व्यंग्य और सजा के जवाब में वह बस अपनी भावनाओं से खाली नज़रों से उन्हें देखा करता और सिर झुका लेता । मिस को अब इससे गंभीर चिढ़ हो चुकी थी।
पहला सेमेस्टर समाप्त हो गया और रिपोर्ट बनाने का चरण आया तो मिस ने राजू की प्रगति रिपोर्ट में यह सब बुरी बातें लिख मारी । प्रगति रिपोर्ट माता पिता को दिखाने से पहले हेड मिसट्रेस के पास जाया करती थी। उन्होंने जब राजू की रिपोर्ट देखी तो मिस को बुला लिया। "मिस प्रगति रिपोर्ट में कुछ तो प्रगति भी लिखनी चाहिए। आपने तो जो कुछ लिखा है इससे राजू के पिता इससे बिल्कुल निराश हो जाएंगे।" "मैं माफी माँगती हूँ, लेकिन राजू एक बिल्कुल ही अशिष्ट और निकम्मा बच्चा है । मुझे नहीं लगता कि मैं उसकी प्रगति के बारे में कुछ लिख सकती हूँ। "मिस घृणित लहजे में बोलकर वहां से उठ आईं।
हेड मिसट्रेस ने एक अजीब हरकत की। उन्होंने चपरासी के हाथ मिस की डेस्क पर राजू की पिछले वर्षों की प्रगति रिपोर्ट रखवा दी । अगले दिन मिस ने कक्षा में प्रवेश किया तो रिपोर्ट पर नजर पड़ी। पलट कर देखा तो पता लगा कि यह राजू की रिपोर्ट हैं। "पिछली कक्षाओं में भी उसने निश्चय ही यही गुल खिलाए होंगे।" उन्होंने सोचा और कक्षा 3 की रिपोर्ट खोली। रिपोर्ट में टिप्पणी पढ़कर उनकी आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि रिपोर्ट उसकी तारीफों से भरी पड़ी है। "राजू जैसा बुद्धिमान बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा।" "बेहद संवेदनशील बच्चा है और अपने मित्रों और शिक्षक से बेहद लगाव रखता है।" "
अंतिम सेमेस्टर में भी राजू ने प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया है। "मिस ने अनिश्चित स्थिति में कक्षा 4 की रिपोर्ट खोली।" राजू ने अपनी मां की बीमारी का बेहद प्रभाव लिया। .उसका ध्यान पढ़ाई से हट रहा है। "" राजू की माँ को अंतिम चरण का कैंसर हुआ है। । घर पर उसका और कोई ध्यान रखनेवाला नहीं है.जिसका गहरा प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़ा है। ""
राजू की माँ मर चुकी है और इसके साथ ही राजू के जीवन की चमक और रौनक भी। । उसे बचाना होगा...इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। "मिस के दिमाग पर भयानक बोझ हावी हो गया। कांपते हाथों से उन्होंने प्रगति रिपोर्ट बंद की । आंसू उनकी आँखों से एक के बाद एक गिरने लगे.
अगले दिन जब मिस कक्षा में दाख़िल हुईं तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार अपना पारंपरिक वाक्यांश "आई लव यू ऑल" दोहराया। मगर वह जानती थीं कि वह आज भी झूठ बोल रही हैं। क्योंकि इसी क्लास में बैठे एक उलझे बालों वाले बच्चे राजू के लिए जो प्यार वह आज अपने दिल में महसूस कर रही थीं..वह कक्षा में बैठे और किसी भी बच्चे से हो ही नहीं सकता था । व्याख्यान के दौरान उन्होंने रोजाना दिनचर्या की तरह एक सवाल राजू पर दागा और हमेशा की तरह राजू ने सिर झुका लिया। जब कुछ देर तक मिस से कोई डांट फटकार और सहपाठी सहयोगियों से हंसी की आवाज उसके कानों में न पड़ी तो उसने अचंभे में सिर उठाकर उनकी ओर देखा। अप्रत्याशित उनके माथे पर आज बल न थे, वह मुस्कुरा रही थीं। उन्होंने राजू को अपने पास बुलाया और उसे सवाल का जवाब बताकर जबरन दोहराने के लिए कहा। राजू तीन चार बार के आग्रह के बाद अंतत:बोल ही पड़ा। इसके जवाब देते ही मिस ने न सिर्फ खुद खुशान्दाज़ होकर तालियाँ बजाईं बल्कि सभी से भी बजवायी.. फिर तो यह दिनचर्या बन गयी। मिस हर सवाल का जवाब अपने आप बताती और फिर उसकी खूब सराहना तारीफ करतीं। प्रत्येक अच्छा उदाहरण राजू के कारण दिया जाने लगा । धीरे-धीरे पुराना राजू सन्नाटे की कब्र फाड़ कर बाहर आ गया। अब मिस को सवाल के साथ जवाब बताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह रोज बिना त्रुटि उत्तर देकर सभी को प्रभावित करता और नये नए सवाल पूछ कर सबको हैरान भी।
उसके बाल अब कुछ हद तक सुधरे हुए होते, कपड़े भी काफी हद तक साफ होते जिन्हें शायद वह खुद धोने लगा था। देखते ही देखते साल समाप्त हो गया और राजू ने दूसरा स्थान हासिल कर लिया यानी दूसरी क्लास ।
विदाई समारोह में सभी बच्चे मिस के लिये सुंदर उपहार लेकर आए और मिस की टेबल पर ढेर लग गये । इन खूबसूरती से पैक हुए उपहार में एक पुराने अखबार में बद सलीके से पैक हुआ एक उपहार भी पड़ा था। बच्चे उसे देखकर हंस पड़े। किसी को जानने में देर न लगी कि उपहार के नाम पर ये राजू लाया होगा। मिस ने उपहार के इस छोटे से पहाड़ में से लपक कर उसे निकाला। खोलकर देखा तो उसके अंदर एक महिलाओं की इत्र की आधी इस्तेमाल की हुई शीशी और एक हाथ में पहनने वाला एक बड़ा सा कड़ा था जिसके ज्यादातर मोती झड़ चुके थे। मिस ने चुपचाप इस इत्र को खुद पर छिड़का और हाथ में कंगन पहन लिया। बच्चे यह दृश्य देखकर हैरान रह गए। खुद राजू भी। आखिर राजू से रहा न गया और मिस के पास आकर खड़ा हो गया। ।
कुछ देर बाद उसने अटक अटक कर मिस को बताया कि "आज आप में से मेरी माँ जैसी खुशबू आ रही है।"
समय पर लगाकर उड़ने लगा। दिन सप्ताह, सप्ताह महीने और महीने साल में बदलते भला कहां देर लगती है? मगर हर साल के अंत में मिस को राजू से एक पत्र नियमित रूप से प्राप्त होता जिसमें लिखा होता कि "इस साल कई नए टीचर्स से मिला।। मगर आप जैसा कोई नहीं था।" फिर राजू का स्कूल समाप्त हो गया और पत्रों का सिलसिला भी। कई साल आगे गुज़रे और मिस रिटायर हो गईं। एक दिन उन्हें अपनी मेल में राजू का पत्र मिला जिसमें लिखा था:
"इस महीने के अंत में मेरी शादी है और आपके बिना शादी की बात मैं नहीं सोच सकता। एक और बात .. मैं जीवन में बहुत सारे लोगों से मिल चुका हूं।। आप जैसा कोई नहीं है.........डॉक्टर राजू
साथ ही विमान का आने जाने का टिकट भी लिफाफे में मौजूद था। मिस खुद को हरगिज़ न रोक सकती थीं। उन्होंने अपने पति से अनुमति ली और वह दूसरे शहर के लिए रवाना हो गईं। शादी के दिन जब वह शादी की जगह पहुंची तो थोड़ी लेट हो चुकी थीं। उन्हें लगा समारोह समाप्त हो चुका होगा.. मगर यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही कि शहर के बड़े डॉ, बिजनेसमैन और यहां तक कि वहां पर शादी कराने वाले पंडितजी भी थक गये थे. कि आखिर कौन आना बाकी है...मगर राजू समारोह में शादी के मंडप के बजाय गेट की तरफ टकटकी लगाए उनके आने का इंतजार कर रहा था। फिर सबने देखा कि जैसे ही यह पुरानी शिक्षिका ने गेट से प्रवेश किया राजू उनकी ओर लपका और उनका वह हाथ पकड़ा जिसमें उन्होंने अब तक वह सड़ा हुआ सा कंगन पहना हुआ था और उन्हें सीधा मंच पर ले गया। माइक हाथ में पकड़ कर उसने कुछ यूं बोला "दोस्तों आप सभी हमेशा मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछा करते थे और मैं आप सबसे वादा किया करता था कि जल्द ही आप सबको उनसे मिलाउंगा।।।........यह मेरी माँ हैं - ------------------------- "
___
!! प्रिय दोस्तों.... इस सुंदर कहानी को सिर्फ शिक्षक और शिष्य के रिश्ते के कारण ही मत सोचिएगा । अपने आसपास देखें, राजू जैसे कई फूल मुरझा रहे हैं जिन्हें आप का जरा सा ध्यान, प्यार और स्नेह नया जीवन दे सकता है...........

साभार : एक मित्र द्वारा व्हाट्सएप पर भेजी गया प्रसंग 

सपने हक़ीक़त में सच हो सकते हैं


सपने हक़ीक़त में सच हो सकते हैं:-

Dreams can come true in reality

   हमारी अपेक्षा प्रत्येक सामने वाले व्यक्ति से यही रहती है, कि वह बिलकुल ऐसा व्यवहार करे, जो केवल हमें पसन्द हो, उसमें चाहे वह बहुत ही नज़दीकी परिवार का हो, या समाज से अन्य सम्बन्धी लोग । जिनको हम मिलते रहते हैं, खास कर हम अपने जीवन साथी से कुछ ज़्यादा ही अपेक्षाएँ रखते हैं । जब की सच्चाई यह है, कि यदि आप का जीवनसाथी आप की ही तरह हो जाय, तो सायद आप का जीवन नीरस हो जाएगा । और ऐसी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए कि आप का जीवनसाथी सोंच में, कर्म में आप के जैसा ही हो । यही कलह का बड़ा कारण हो सकता है, यदि हम अपनी असम्भव सी अपेक्षाएँ नियन्त्रण में रख कर व्यवहार करें, तो इसी से ज़िन्दगी का भरपूर मज़ा भी लिया जा सकता है । चुंकि दोनों का निर्माण अलग-अलग ढंग से हुआ है, इस लिए दोनों में से एक कोई ऐसा काम करेगा, जो दूसरे को बिल्कुल पसन्द या नहीं पसन्द होगा । ऐसी स्थिति में झंझट से बचने के लिए रास्ते भी आप को ही ढूँढने पड़ेगें । विवाह के पूर्व आप को ऐसे अनुभव कभी नही हुए होगे, जो विवाह के पश्चात हुए हैं । जीवनसंगी आप को कुछ ऐसा भी दिखा जाता है जिसको जान कर आप चौंकते हुए कहेंगे, कि दुनिया में ऐसा भी होता है, सच में ऐसा होता है जो बहुत ही सुखद या डरावना होता है । यदि आप इस तनाव से बचना चाहते हैं, तो जीवन जीनें के तरीक़े में कुछ बदलाव करने होंगे क्यों कि दोनों का स्वभाव विपरीत है । 

   इस बात को समझते हुए जब भी उपयुक्त अवसर मिले जीवन साथी की प्रशंसा का कोई भी अवसर मत चूकिए । सच तो यह है कि भगवान ने पूरी तरह से बुरा तो किसी को नहीं बनाया और हर तरह से अच्छा भी किसी को नहीं गढ़ा । इस लिए जीवन साथी की अच्छाइयों को नोटिस में लेकर प्रशंसा करने की आदत बना लें । आप देखेंगे जिस जीवन को आप जैसा जीने की चाहत रखते हैं । उससे कहीं ज़्यादा ख़ुशहाल जीवन जी सकेंगे, जो सायद आप की कल्पना में भी न रहा हो ।

साभार: 

रविवार, 21 मई 2017

सफलता और असफ़लता के बीच की दुरी




     

    

कई बार आप "सफल" होने के काफी क़रीब पहुँच कर भी "असफल" हो जाते हैं, इसका मतलब यह क़तई नहीं कि आप के प्रयास में कोई कमी है, इसका सीधा सा कारण है, कि आप महसूस नही कर पाए, और "सफलता" की अन्तिम सीढ़ी से बंचित हो गए । इस लिए आप का प्रयास तब तक जारी रहना चाहिए, जब तक खुद को "सफल" हो जाने का पक्का यक़ीन न हो जाय ।





















साभार : श्री बी. एल. सिंह यादव 
लेखक, विचारक एवं सामजिक कार्यकर्त्ता 


शुक्रवार, 12 मई 2017

मानवीय रिस्तों का महत्व

कभी कभी हमारे लिए भी अच्छा है कि हम कुछ मामलों में अंधे बने रहें


एक आदमी ने बहुत ही सुंदर लड़की से विवाह किया।
वो उसे बहुत प्यार करता था। अचानक उस लड़की को
चर्मरोग हो गया कारण वश उसकी सुंदरता कुरूपता में
परिवर्तित होने लगी। अचानक एक दिन सफर में
दुर्घटना से उस व्यक्ति के आँखों की रौशनी चली गई।
दोनों पति-पत्नी की जिंदगी तकलीफों के बावजूद भी एक
दूसरे के साथ प्रेम पूर्वक चल रही थी।
दिन ब दिन पत्नी अपनी सुंदरता खो रही थी पर पति के
देख न पाने के कारण उनके प्यार में कोई कमी नही आ रही थी ।
दोनों का दाम्पत्य जीवन बड़े प्यार से चल रहा था।
रोग के बढ़ते रहने के कारण पत्नी की मृत्यु हो गई।
पति को बहोत दुःख हुआ और उसने उसकी यादों के साथ
जुड़ा होने के कारण उस शहर को छोड़ देने का विचारकिया।
उसके एक मित्र ने कहा अब तुम पत्नी के बिना सहारे
अंजान जगह अकेले कैसे चल फिर पाओगे ?
उसने कहा मैं अँधा होने का नाटक कर रहा था,क्यों की
अगर मेरी पत्नी को ये पता चल जाता की मैं देख
सकता हूँ तो उसे अपने रोग से ज्यादा कुरूपता पर दुःख
होता और में उसे इतना प्यार करता था,की किसी भी
हालत में उसे दुखी नही देख सकता था।
वो एक बहोत ही अच्छि पत्नी थी और मैं उसे हमेशा खुश देखना चाहता था। 

इस कहानी से जो सीख मिली है:----


कभी कभी हमारे लिए भी अच्छा है कि हम कुछ मामलों
में अंधे बने रहें, वही हमारी ख़ुशी का सबसे बड़ा कारण होगा।
बहुत वार दांत जीभ को काट लेते हैं फिर भी मुंह में एक
साथ रहते हैं, यही माफ़ कर देने का सबसे बड़ा उदाहरणहै।
मानवीय रिस्तों बिना हम हमेशा अधूरे हैं
,इसलिए हमेशा जुड़े रहें।... 

एक छोटा सा प्रयास आप सभी के समक्ष प्रस्तुत है 
अच्छा लगे तो औरों को भेजना |  

अपने अमूल्य  सुझाव / विचार  जरूर दें 

pictures courtesy




मंगलवार, 9 मई 2017

नृसिंह: अर्ध सिंह, अर्ध मनुष्य

नृसिंह चतुर्दशी के दिन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण ने अर्ध सिंह, अर्ध मनुष्य के रूप में अवतार लिया था।




 जैसा की श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है –

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्य्हम् ।। [ भ० गी० ४.७]

“हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ।”


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।। [भ० गी० ४.८]

“भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की पुन: स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।”

भगवान श्री कृष्ण के नृसिंह अवतार लेने के दो उद्देश्य थे – पहला , अपने भक्त प्रह्लाद का उद्धार करना और दूसरा, दुष्टों  का  विनाश करना।

‘प्रह्लाद’ का शाब्दिक अर्थ है –
 “पराकाष्ठा रूपेण आह्लाद” अर्थात् सदा आनंद से परिपूर्ण।

यह सारी कथा भक्त शिरोमणि प्रह्लाद महाराज और उनके नास्तिक और निर्दयी पिता हिरण्यकशिपु के बीच मतभेद पर आधारित हैI प्रह्लाद महाराज सिर्फ पाँच वर्ष के बालक थे और उनका अपराध क्या था? सिर्फ इतना की वह कृष्ण भक्त थे और ‘हरे कृष्ण’ का जाप करते थे। पर उनके पिता इतने निर्दयी थे की वे अपने पुत्र की भक्ति से क्रोधित थे।

‘हिरण्यकशिपु ‘ का शाब्दिक अर्थ है – “जो स्वर्ण और मखमल के सेज के प्रति आसक्त हो “, जो की सांसारिक लोगों  का परम लक्ष्य है। उसने अपने पुत्र को कई तरह से प्रताड़ित किया। दानव सदैव भगवान के भक्तों  के विरुद्ध होते है। हिरण्यकशिपु अपने पुत्र प्रह्लाद महाराज को विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित करने के बाद भी उनको कृष्ण भक्ति के मार्ग से भ्रमित न कर पाया।

एक दिन उसने अपने पुत्र को बुला कर स्नेहपूर्वक गोद में उठा लिया और फिर उससे पूछा की “अब तक तुमने अपने अध्यापकों से कौन सी सर्वश्रेष्ठ बात सीखी?”  तो प्रह्लाद महाराज ने बताया –

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्र्चेन्नवक्षणा ।
क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्।।

[श्री० भा० ७.५.२३-२४]

अर्थात्  “हमें श्री विष्णु के दिव्य नाम, रूप, गुण, आभूषण एवं सेवा सामग्री तथा लीलाओं के बारे में सुनना, कीर्तन करना, स्मरण करना, उनके चरणों की सेवा करना, शोडशोपचार पूजा करना, वंदना करना, उनके सेवक बनना, उनको अपना मित्र मानना और उनको सर्वस्व समर्पण करना (अर्थात काया, वाचा, मनसा उनकी सेवा में लिन रहना) – यह नव विधान शुद्ध भक्ति कहलाते हैंI जिस व्यक्ति ने अपने जीवन को श्री कृष्ण की भक्ति में इन नव विधानों द्वारा समर्पित किया हो उसको सबसे विद्वत्त समझना चाहिए क्योंकि उसने सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित कर लिया है।”

अपने पुत्र प्रह्लाद के मुख से भक्ति के इन वचनों को सुन कर हिरण्यकशिपु अत्यंत क्रोधित हुआ। उसने कँपकँपाते होठों से गुरु शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड से इस प्रकार कहा,”अरे ब्राह्मण के अयोग्य नृशंस पुत्र! तुमने मेरे बालक को भक्ति का पाठ पढ़ाया है?” गुरु शुक्राचार्य के पुत्र ने बताया की उसने या किसी ने उसे यह नहीं पढ़ाया है। उसमे यह भक्ति स्वतः उत्पन्न हुई है। हिरण्यकशिपु ने तब अपने पुत्र से कहा, ” रे धूर्त! हमारे परिवार के सबसे अधम! यदि तुमने यह शिक्षा अध्यापकों से नहीं प्राप्त की तो कहाँ से प्राप्त की?” प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया,

श्रीप्रह्राद उवाच
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो व
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् ।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुन: पुनश्र्चर्वितचर्वणानाम् ।।
[श्री० भा० ७.५.३०]
“प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया, अनियंत्रित इंद्रियों के कारण वे व्यक्ति जो भौतिक जीवन से अति मोहित हैं वह चबाये हुए को चबाते नर्क की ओर अग्रसर हैं। दूसरों के बोधन से, अपने प्रयासों से अथवा इन दोनों के मिश्रित प्रभाव से भी उनमें श्री कृष्ण के प्रति आसक्ति कभी जागृत नहीं होती।”

दो शब्द हैं – एक गृहस्थ और दूसरा गृहव्रत अथवा गृहमेधी। क्योंकि प्रह्लाद अपने पिता की ओर इशारा कर रहा था की वह गृहव्रत है, तो उसने कहा – यदि भौतिक संसार में इस शरीर के साथ कोई सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता हैं तो वह आत्म चिंतन से अथवा सम्मेलन द्वारा ही कभी भी कृष्ण भावनामृत में नहीं आ सकते। ऐसे व्यक्तियों की स्थिति क्या होती है? अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं… वे अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाते अत: उनका मार्ग उन्हें नारकीय जीवन की ओर ले जाता है। उनका मात्र एक कर्म होता है- पुन: पुनश्र्चर्वितचर्वणानाम्… चबाये हुए को चबाना।

सांसारिक सुख का अर्थ है -चबाये हुए को पुन: चबाना। जिस प्रकार एक पिता यह जनता है की उसने विवाह कर परिवार को सुखपूर्वक जीवन प्रदान करने भरसक प्रयास किया पर अंतत: सभी अतृप्त रहे, फिर भी वह अपनी संतान को इसी कार्यकलाप में संलग्न करता है। स्वयं का इस सांसारिक जीवन में बहुत बुरा अनुभव होने के उपरांत भी वह अपनी संतान को सांसारिक सुखों के पीछे भागना सिखाता है। इसी को कहते है ‘पुन: पुनश्र्चर्वितचर्वणानाम्’। यह वही परिस्थिति जैसे गन्ने  को कोई चबाए और सारा रस निकाल कर फ़ेंक दे और इस चबाए हुए गन्ने को फिर चबा कर रस निकालना चाहे।

सांसारिक सुख का अर्थ है -‘संभोग’ जो यहाँ का अंतिम और चरम सुख है। जो व्यक्ति इन्द्रिय सुख की ओर बहुत आकर्षित रहते हैं वे निष्कर्ष निकाल लेते हैं की हम परिवार और समाजिक जीवन में ही सुखी रह सकते हैं और सुख में स्त्री और बच्चों का होना अनिवार्य है। ऐसे जीवन में अवश्य कुछ आनंद है परंतु शासत्रानुसार, इसकी मान्यता क्या है?

श्रील विद्यापति ठाकुर अपने एक गीत में लिखते हैं,

तातल सैकते वारिबिंदुसम सुतमितरमणिसमाजे

निः संदेह गृहस्थ जिवन में कुछ आनंद अवश्य होगा अन्यथा इतने लोग इसके लिए क्यों व्याकुल हैं। किंतु यह आनंद तुच्छ और क्षणिक है। इस आनंद की तुलना मरुस्थल में जल बिंदु से की गई है। यदि हम मरुस्थल को बगीचा बनाना चाहें तो उसके लिए एक समुद्र भर जल की आवश्यक्ता होगी। यदि कोई यह कहे की ‘तुम्हे पानी चाहिए? एक बूँद ले लो’, तो यह बात हास्यप्रद होगी? उसी प्रकार यदि हमारा मन भौतिक अभिलाषाओं में मग्न है, तो वह इस मरुभूमि रूपि संसार में एक बूंद के प्रति आसक्त होना है। इसमे दीर्धकिलीन सुख का कोई आसार नहीं है।

वास्तव में हम कृष्ण के  प्रति आतुर हैं किंतु इस इच्छा से अनभिज्ञ हैं। हम अपनी इच्छाओं को संसार की भौतिक वस्तुओं से संतुष्ट करना चाहते है जो असंभव है। हम आशा के विरुद्ध आशा करते हैं।  जिस प्रकार यदि किसी मछली को पानी से बाहर निकाल कर एक बहुत सुंदर सेज पर लेटा दिया जाये तो वह कभी खुश नहीं रह सकती। उसी प्रकार जीवात्मा जब तक अपने स्वभावानुसार आध्यात्मिक वातावरण में विचरण नहीं करती, वह सुखी नहीं हो सकती।  इसी कारण वश जगत में हर कोई निराश व परेशान है।

अगला प्रश्न यह उठता है कि आखिर लोग इस भौतिक जीवन के भोग के लिेए क्यों इतने व्याकुल हैं? इस प्रश्न का उत्तर  प्रह्लाद महाराज देते हैं –

न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुं
दुराशया ये बहिरर्थमानिनः।
अन्धा यथान्धैरुपनीयामाना-
स्तेपीशतन्त्र्यामुरुदाम्नि बद्धा ।।
[ श्री० भा० ७.५.३१]
“जो व्यक्ति दृढ़ रुप से भौतिक सुख की कामना में बद्ध हैं, अथ: जिन्होंने अपने समान बाह्य वस्तुओं पर आसक्त एक अंद्धे व्यक्ति को अपना नेता अथवा गुरु स्वीकार किया है, वे कभी समझ नहीं सकते कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य है ‘भगवत् धाम को लौटना’ और भगवान विष्णु के सेवारत् होना। जिस प्रकार एक अंधे व्यक्ति के नेत्रित्व में दूसरे अंधे लोग सत मार्ग से भ्रष्ठ होकर नाले में गिर जाते हैं, उसी प्रकार भौतिक्ता में आसक्त व्यक्ति, उसी तरह आसक्त व्यक्तियों के मार्गदर्शन से कर्म पाश मे बंद्ध जाते हैं, जो अति मज़बूत रस्सियों का बना है, और वे पुन: पुन: भौतिक जीवन के तापत्रैयौं (तीन तरह की विपदाओं) का अनुभव करते हैं।”

जो लोग भौतिक जीवन के भोग द्वारा दृढ़ता से बँधे हैं वे नहीं जानते की जीवन का अंतिम और परम लक्ष्य है – ‘पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री विष्णु’। लोगों ने बाह्य इन्द्रिय – मन, बुद्धि और अहंकार के विषय को अपना मान रखा है। वे सोचते हैं कि ‘मैं शरीर हूँ, मैं इस शरीर का मालिक हूँ।” जैसे किसी ने कमीज या कुर्ता पहन रखा हो और स्वयं को कमीज या कुर्ता ही मानने लगे। हम लोग बाह्य शरीर से ढ़के हुए हैं  और इस बाह्य शरीर के पीछे हमारा वास्तविक अस्तित्व है जो श्री कृष्ण का एक अंश होना है। हम कृष्ण के अंश हैं  और हमें आध्यात्मिक आहार चाहिए, आध्यात्मिक जीवन चाहिए, तभी हम सुखी हो सकते हैं। यदि कोई सोचे की अच्छे भोजन से, अच्छी नेद्रा से, अथवा अच्छी इन्द्रिय तृप्ति से हम सुखी हो पाएंगे तो वह एक भ्रम है।

अब प्रश्न उठता है आखिर लोगों की सोच ऐसी क्यों है? प्रह्लाद महाराज कहते हैं-  अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना [श्री० भा० ७.५.३१] क्योंकि  हम लोगों ने ऐसी सभ्यता अपना रखी है जो अन्धे नेता या अन्धे गुरु द्वारा संचालित है। एक अन्धा कई अन्धे लोगों का मार्गदर्शन कर रहा है। ऐसे अन्धे उन अनेक अन्धे अनुयायियों का मार्गदर्शन कर सकते हैं जिन्हे भौतिक दशाओं  का सही ज्ञान नहीं है किन्तु ऐसे लोग प्रह्लाद महाराज जैसे भक्तों दरा स्वीकार नहीं किये जाते हैं। तेऽपीशतन्त्र्यामुरुदाम्नि बद्धा [श्री० भा० ७.५.३१] ऐसे अन्धे गुरु बाह्य भौतिक जगत में रूचि रखने के कारण सदैव प्रकृति की मजबूत रस्सियों द्वारा बँधे रहते हैं। जैसे यदि कोई अन्धा व्यक्ति सड़क किनारे खड़ा हो और अन्य लोगों को कहे कि यदि सब उसका अनुसरण करें तो वह उनको सड़क पार करा देगा, तो परिणाम क्या होगा? परिणाम यही होगा की वे सब किसी नाले में जा गिरेंगे  अथवा किसी गाड़ी से ट़करा कर घायल हो जाएँगे।

वास्तव में हमने भौतिक प्रगती की है परंतु यही विकास हमारी व्यथा का कारण बन गया है। उदाहरणस्वरुप – कंप्यूटर मशीन। यह हजारों लोगों का काम अकेले कर सकती है परंतु इस कारणवश हजारों लोग बेरोजगार हो गए हैं। इसी को कहते है ‘सांसारिक जीवन की उलझन’।  इसका अर्थ यह नहीं है की सारे काम बंद कर दिए जाएँ, किंतु हमे समझना चाहिए कि भौतिक संसार ऐसा है जहाँ किसी समस्या के समाधान से कईं नई समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हें। हमारा जीवन समस्याओं को सुलझाने या समस्याओं को उत्पन्न  करने के लिए नहीं बना है हमारा जीवन ईश्वर को समझने के  लिए बना है। जो लोग नहीं पहचान पाते की हम सब प्रकृति के कड़े नियमों में बँधे हैं, उन्हें बदलना कठिन है।

अगला प्रश्न उठता है कि लोग कृष्ण भावनामृत में रूचि नहीं दिखा रहे हों, वे अंधे नेता या गुरु द्वारा गुमराह कर दिए गए हों, तो इस परिस्थिति का समाधान क्या है?

प्रह्लाद महाराज कहते हैं –

नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थ:।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं
निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥
[श्री० भा​० ७.५.३२]
“जब तक भौतिक जिवन के आसक्त लोग एक पवित्र, सांसारिक दूषण से पूर्णतय: मुक्त वैष्णव की चरण रज से नहा न लें तब तक वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, जिनकी असाधारण लीलाओं का सदैव गुणगान होता है, उनके चरण कमलों के अनुरक्त नहीं हो सकते। केवल कृष्ण भावनामृत में आकर इस प्रकार भगवान के चरण कमलों का आश्रय स्वीकार कर के ही कोई भौतिक मलिनता से मुक्त हो सकता है।”

इसलिए हमें शुद्ध भक्त की शरण लेने की आवश्यकता है और सिर्फ यही एक मार्ग है। हमे उस व्यक्ति से निर्देश लेना होगा जो अन्धा नहीं है अर्थात जिसकी आँखे खुली हुई हैं जो सांसारिक बंधन से मुक्त है।

कोई कृष्ण को तब तक नहीं समझ सकता जब तक उस पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की कृपा न हो। जिसने कृष्ण के शुद्ध भक्त की शरण ली हो और उनके चरण कमलों की धूलि धारण की हो वही कृष्ण को समझ सकता है। भगवत धाम जाने का यही एक मार्ग है।

   इस प्रकार प्रह्लाद महाराज ने अपने पिता को यह दिव्य उपदेश किया तो उसे ग्रहण करने के बदले हिरण्यकशिपु के होंठ क्रोध से फड़फड़ाने लगे। उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को अपनी गोद से उतार फेंका और अत्यंत क्रुद्ध, पिघले ताँबे जैसे लाल-लाल आँख किये  कहा- “क्या विष्णु इस खम्भे में भी है ?” प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया- “वे तो सर्वव्यापी हैं और इस खम्भे में भी हैं।”  क्रोध से प्रमत्त हिरण्यकशिपु  ने जब खम्भे पर मुठ्ठी से प्रहार किया तो उससे एक भीषण ध्वनि उत्पन्न हुई। पहले तो हिरण्यकशिपु को खम्भे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखा किन्तु प्रह्लाद महाराज के वचन को सत्य करने के लिए भगवान् उस खम्भे से नृसिंह देव के अद्भुत रूप में प्रकट हुए, जिनका आधा अंग सिंह का और आधा अंग मनुष्य का था। जिस प्रकार गरुड़ किसी अत्यंत विषैले सर्प को पकड़ लेता है उसी तरह अट्टहास करते हुए नृसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु  को अपनी गोद में दबोचा और जिस त्वचा को इन्द्र का वज्र भी नहीं फाड़ सकता था उसे अपने नाखुनों से फाड़ डाला  I

श्री कृष्ण ने भगवद्गीता मे स्पष्ट रूप से कहा है कि “भौतिक प्रकृति मेरी अध्यकक्षता  में काम करती है” (मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् [भ० गी० ९.१०])। लेकिन नास्तिक लोग अपने ईश्वर विहीन स्वभाव के कारण नहीं जान पाते की प्रकृति किस तरह से काम करती है और न ही वे  ईश्वर  की योजना को ही समझ पाते हैं। हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से वरदान लिया था की वह न जल में मरे, ने भूमि पर या आकाश में, न दिन में मरे न रात में, न कोई  मनुष्य उसे मार सके न देवता न पशु। वर प्राप्त कर उसने सोचा की वह अमर हो गया। अपनी आसुरी शक्तियों और तामसिक बुद्धि के अहंकार में वह स्वयं को ईश्वर समझने लगा। वह श्री कृष्ण को समर्पित न हो कर स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को ही मारने की योजना बनाने लगा।  लेकिन ऐस तामसिक लोगों की योजना सदा ही श्री कृष्ण की योजना के समक्ष विफल होती है। ऐसे नास्तिक और ईश्वर विहीन लोगों को मारने के लिए स्वयं श्री कृष्ण ‘मृत्यु ‘ के रूप में आते हैं। “मृत्युः सर्वहरश्हचाहम् …(भ० गी० १०.३४ ) और उनका कीर्ति, धन, परिवार,ऐश्वर्य सब कुछ हर लेते हैं।


जब नृसिंह भगवान प्रकट हुए तो वो बहुत भयंकर लग रहे थे  जिसको अल्प शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता है।  उनके गर्जना से सारे  हाथी भय से चिंघाडने लगे। यहाँ तक कि नारायण की  चिरसंगिनी, लक्षमीजी को भी उनके सम्मुख आने का साहस नहीं हुआॊ। किन्तु, प्रह्लाद महाराज ऐसे भयानक रूप से तनिक भी विचलित नहीं हुए और निश्चिंत उनके चरणों की शरण ली जैसे सिंह का बच्चा सिंह से भयभीत नहीं होता है  बल्कि उछल कर उसके गोद में  जा बैठता है।


भगवान नृसिंह का भयंकर रूप अभक्तों के लिए निश्चय ही अत्यंत घातक था परन्तु भक्तों के लिए यह रूप सदैव कल्याणकारी होता है। समुद्र का जल स्थल के समस्त जीवों के लिए अत्यंत भयावह होता है लेकिन सागर में रहने वाली एक छोटी सी मछली उसमे निर्भय विचरण करती है। क्यों? बड़े बड़े हाथी तक सागर में बह जाते है, किन्तु छोटी मछली धारा के विरुद्ध तैरती रहती है क्योंकि मछली ने धारा की शरण ले रखी है। अतएव यद्यपि दुष्कृत लोगों को मारने के लिए भगवान कभी- कभी भयानक रूप धारण कर लेते हैं किंन्तु भक्त जन उन्हें सदा पूजते हैं।


हर कोई अपने कर्म फल के अनुरूप ही जन्म पाता है, परंतु यह आवश्यक नहीं है कि यदि पिता नास्तिक है तो पुत्र भी नास्तिक ही  होगा।

हिरण्यकशिपु की मृत्यु के पश्चात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवन ने प्रह्लाद महाराज से कहा, “हर जीव की इच्छा को पूरा करना मेरी लीला है,  इसलिए तुम मुझसे कोई मनवांछित वर मांग सकते हो। हे प्रह्लाद! तुम मुझसे यह जान लो: जो विभिन्न भावों द्वारा मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न करते है मैं उसकी सारी इच्छाओं को पूर्ण कर सकता हूँ।”

भक्त शिरोमणि प्रह्लाद महाराज ने कहा-” हे सवश्रेष्ठ वर दाता! यदि आप मुझे कोई वर देना चाहते हैं तो मेरी आपसे प्रार्थना है की मेरे ह्रदय के अंतराल में किसी प्रकार की भौतिक इक्छा न रहे ” 

नृसिंह भगवन ने प्रह्लाद महाराज से अत्यंत प्रसन्न हो कर कहा-“हे प्रह्लाद! इस भौतिक जगत में रहते हुए तुम सुख का अनुभव करके अपने पुण्यकर्म को समाप्त कर सकोगे और पुण्य कर्म करके पापकर्मों को विनष्ट कर सकोगे। शक्तिशाली काल के कारण तुम अपने शरीर का त्याग करोगे और बंधन से मुक्त हो कर भगवतधाम लौट सकोगे।”

प्रह्लाद महाराज ने कहा -“हे परमेश्वर ! चूँकि आप पतित आत्माओं पर दयालु हैं अतएव  मैं आपसे एक ही वर मांगता हूँ की मेरे पिता के पापों को क्षमा कर दें।”

पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा -“हे परम भक्त प्रह्लाद! न केवल तुम्हारे पिता अपितु तुम्हारे परिवार के इक्कीस पुर्खों को पवित्र कर दिया गया है। चूँकि तुम इस परिवार में उत्पन्न हुए हो,  तुम्हारा संपूर्ण कुल ही पवित्र हो गया है।”


एक बालक जो कृष्ण भावनामृत में होता है वह अपने पिता, परिवार और देश तथा समाज को सबसे अच्छी सेवा प्रदान करता है। कृष्ण भावनामृत से श्रेष्ठ भला क्या सेवा हो सकती है? यदि किसी वैष्णव का परिवार में जन्म होता है तो वह न केवल अपने पिता को, बल्कि अपने  पिता के पिता, उनके पिता इस तरह इक्कीस पीढ़ी को मुक्ति प्रदान करता है। कृष्ण भावनामृत  में आना परिवार की सर्वश्रेष्ठ सेवा है।

सोमवार, 8 मई 2017

सोमवंशी अथवा चंद्रवंशी क्षत्री

Historical Research of 

Real Yaduvanshi  |Pauranik Yadav and Yadukul Shiromane Shre Krishna 's Vanshaj

वास्तविक यदुवंशी/पौराणिक यादवों तथा यदुकुल शिरोमणी भगवान् श्री कृष्ण के वंशजों का ऐतिहासिक शोध ----

आधुनिक वर्तमान  परिवेश में वास्तविक यदुवंशी /पौराणिक यादव (जादौ, जादौन, जडेजा ,भाटी, जादव, वनाफर, चूड़ा शमा, सरवैया, रायजादा, छौंकर, वडेसरी, जसावत, जैसवार, सोहा, मुड़ेचा, पोर्च, बितमन , बरगला, नारा, उरिया आदि) समाज अपने इतिहास, संस्कृति, एवं अस्तित्व से अनभिज्ञ है और वर्तमान समय के चलते जातीय घाल-मेल में दन्त कथाओं और अप्रमाणिक इतिहास को यत्र-तत्र पढ़ कर या सुनकर भ्रमित हो रहा है। किसी ने सत्य ही कहा है 

"जो अपना इतिहास नहीं जानता, वह खुद को भी नहीं जानता"

क्यों कि इतिहास से ही किसी व्यक्ति या समाज की पहचान बनती है।आज संसार की अनेक जातियाँ अपने जातीय इतिहास के ज्ञान के बिना लुप्त हो चुकी है।विद्वान और भागवताचार्य इस यदुवंश की महिमा का वर्णन करते रहते है लेकिन स्वयं यदुवंश समाज आज भी अपने ही गौरवशाली इतिहास और संस्कृति से अपरिचित तथा भृमित बना हुआ है।जब कि अन्य जातियां यदुवंश के विशेष नामों ,उपनामों तथा महापुरुषों का प्रयोग कर सामाजिक ,राजनैतिक ,एवं आर्थिक लाभ प्राप्त कर रही है।आज कल कुछ जातीय इतिहासकार /लेखक अपनी जाति के इतिहास लेखन में अप्रमाणित ,भर्मपूर्ण एवंकाल्पनिक विवरण लिख रहे है तथा हमारे वास्तविक क्षत्रियों के इतिहास के साथ अपने कल्पित इतिहासको जोड़ने की पूर्ण कोशिस कर रहे हैजिसे पढ़ कर पाठक भर्मित होजाता है।ऐसे भ्रामक ज्ञान से समाज के लोगों में कुतर्कों का जाल फैलता है ।यह भ्रामक छेड़ -छाड़ यदुवंश के विशाल इतिहास के साथ अत्यधिक दृष्टिगोचर है क्यों कि समस्त प्राचीन इतिहास का मूल श्रोत वेद और पुराण है जिनमें यदुवंश का इतिहास विस्तार से वर्णित है।अतीत के ज्ञान विना वर्तमान का सरलीकरण एवं भविष्य का मार्गदर्शन नहीं होता ।
 चन्द्रवंश से यदुवंश का जन्म कैसे हुआ ? 
Birth of yaduvansh from Chandravansh

यदुवंश प्रायः चन्द्रवंश की एक प्रमुख शाखा है।ऋग्वेद में यदुवंशी तथा चंद्रवंशी अनेक राजाओं का वर्णन मिलता है जिनको शुद्ध क्षत्रिय कहा गया है।यदुवंश द्विजाति -संस्कारित है।प्राचीन पौराणिक इतिहास के अनुसार क्षत्रिय राजा ययाति का विवाह दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री (ब्राह्मण कन्या )देवयानी से हुआ था जिसके बड़े पुत्र महाराज यदु थे जिनसे यदुवंश चला ।इसी कारण यदुवंश में उत्पन्न श्री कृष्णा एवंबलराम का यदुवंश के कुलगुरु गर्गाचार्य जी द्वारा वसुदेव जी के कहने पर नन्द गोप ने गोकुल में द्विजाति यज्ञोपवीत नामकरण संस्कार कराया था ।चन्द्रवंश में से यदुवंश का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन इस प्रकार है।
ब्रहमा के पुत्र अत्रि थे।जिनकी पत्नी भद्रा से सोम अथवा चन्द्रमाका जन्म हुआ।इस लिए ये वंश सोम या चंद्र वंश के नाम से जाना गया।अत्रि ऋषि से इस वंश की उत्पती हुई इस लिए इस वंश के वंशजों का गोत्र अत्री माना गया।तथा इस वंश के वंशज चंद्रवंशी या सोमवंशी कहलाये।चंद्रमा जी ब्रह्स्पति जी की पत्नी तारा का चुपचाप हरण कर लाये। उनसे वुद्ध नामक पुत्र पैदा हुआ। उनके शूर्यवंशी मनु की पुत्री इला से पुरुरुवा नाम का पुत्र हुआ। कालान्तर में वे चक्रवर्ती सम्राट हुए। इन्होंने प्रतिस्थानपुर जिसे प्रयाग कहते है बसाया और अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया। राजा पुरुरवा के उर्वशी के गर्भ से आयु आदि6 पुत्र हुए।महाराज आयु केसरभानुया राहु की पुत्रीप्रभा से नहुष आदि 5 पुत्र हुए।महाराज आयु अनेक आर्यों को लेकर भारत की ओर आयेऔर यमुना नदी के किनारे मथुरा नगर बसाया।राजा आयु के बड़े पुत्र नहुष राजा बने।महाराज नहुष के रानी वृजा से 6पुत्र पैदा हुए जिनमे यती सबसे बड़े थे लेकिन वे धार्मिक प्रवर्ती के होने के कारण राजा नही बनेऔर ययाति को राजा बनाया गया।राजा ययाति की दो रानियां थीजिन्मे एक देवयानी जोदैत्यगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी तथा दूसरी शर्मिष्ठा जो दानव राज वृषपर्वा की पुत्री थी।देवयानी से यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा से द्रुह्यु अनु और पुरू हुए।सभी पांचों राजकुमार सयुक्त रूप से पाञ्चजन्य कहलाये। राजा ययाति ने अपने बड़े बेटे यदु से उनका यौवन मागा जिसे उन्होंने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दीया।सबसे छोटे पुत्र पुरू ने अपना यौवन पिता को देदीया।राजा ययाति ने अप्रसन्न होकर युवराज यदु को उनके बीजभूत उत्तराधिकार से वंचित करके कुमार पुरू को यह अधिकार पारतोषिक में देने की घोषणा की।राजा ययाति के पुत्रों में यदु और पुरू के वंशज ही भारतीय इतिहास का केंद्र रहे। बुद्ध और ययाति तक के राजाओं के वंशज हीसोमवंशी या चंद्रवंशी कहलाये।राजा पुरू के वंशजोंको हीसोमवंशी या चंद्रवंशी कहलाने का अधिकार था।इस लिए क्यों क़ि यदू कुमार ने यौवन देने से इनकार कर दीया थाइस पर महाराज ययाति ने यदु को श्राप दिया की तुम्हारा कोई वंशज राजा नही बनेगा और तुम्हारे वंशज सोम या चंद्र वंशी कहलाने के अधिकारी नहीं होंगे।केवल राजा पुरू के वंशज ही सोम या चंद्रवंशी कहलायेंगे।इसमे कौरव और पांडव हुए।यदु महाराज ने राजाज्ञा दी की भविष्य में उनकी वंश परंम्परा"यदु या यादव "नाम से जानी जाय और मेरे वंशज"यदुवंशी या यादव"कहलायेंगे।राजा पुरू के वंशज,पौरव या पुरुवंशी ही अब आगे से सोमवंशी या चंद्रवंशी कहलाने के अधिकारी रह गये थे।राजा पुरू ,राजा दुष्यंत के पूर्वज थे जिनके राजकुमार भरत के नाम पर इस देश का नाम "भारत या भारतवर्ष"पड़ा।राजा पुरू के ही वंश मेराजा कुरु हुए जिनके कौरव और पांडव हुए जिनमे आपस में महाभारत युद्ध हुआ। प्रयाग से मध्य-देश पर राज्य करते हुए राजा ययाति अत्यधिक अतृप्त यौनाचार से थक गए इसलिए वृद्धावस्था में राज्य त्याग कर उन्होंने वानप्रस्थ का मार्ग अपनाया और जंगल में सन्यासी का जीवन व्यतीत करने चले गये।भारत में केबल यदु और पुरू की संतती शेष रही और इन्ही के वंशजों ने भारत के भावी भाग्य का निर्माण किया।
 Kul of yadyvanshis /pauranik yadavas kshtriyas 
यदुवंशी / पौराणिक यादव क्षत्रियों के कुल
महाराज यदु के 4 पुत्र हुए जिनमें शाष्ट्राजित और क्रोष्ट्रा के वंशज अधिक प्रशिद्ध हुये ।शाष्ट्राजित के वंशज हैहय यादव कहलाये जो यदु के राज्य के उत्तरी भाग के शासक हुए ।
क्रोष्ट्रा --ये महाराज यदु के बाद प्रथम यदुवंशी शासक हुये जो दक्षिणी भाग यानी जूनागढ़ के शासक हुये ।महाराज क्रोष्ट्रा का कुल आगे चल कर कई उपकुलों में विभाजित हुआ ।जिनका विवरण इस प्रकार है। 
अ --राजा दर्शाह के वंशज दर्शाह यादव कहलाये । 
ब -राजा मधू के वंशज मधु यादव कहलाये । 
स-राजा सात्वत के वंशज सात्वत यादव कहलाये । 
द-राजा वृष्णी के वंशज वृष्णी यादव कहलाये जिनमें शूरसेन ,वासुदेव ,श्री कृष्ण ,अक्रूर ,उद्धव ,सात्यकी , कुन्ती ,सत्यभामाके पिता सत्राजित हुये । 
ध- राजा अंधक महाभोज के वंशज भोज वंशी यादव कहलाये जिनमे कुकर -के वंश में राजा उग्रसैन और देवक हुए और भजमन के वंश में कृतवर्मा और सतधनवा हुआ । 
न-कौशिक वंश के यादवों में चेदिराज दमघोष हुए जिनका पुत्र शिशुपाल हुआ । 
प -विदर्व वंशी यादवों में राजा भीष्मक हुए जिनकी पुत्री रुक्मणी जी थी ।
विष्णु पुराण के अनुसार दानवों का नाश करने के लिए देवताओं ने यदुवंश में जन्म लिया जिसमें कि 101 कुल थे।उनका नियंत्रण और स्वामित्व भगवान् श्री कृष्ण ने खुद किया (वि0 पु0 पेज 299) ।महाभारत में 56 कोटि यादवों का वर्णन आता है।इससे लोग अनुमान करते है कि 56 करोड़ यदुवंशी या यादव क्षत्रिय थे परंतु वास्तव में यह 56 शाखाएं थी जिन्हें कुल कहते है।इस लिए 56 करोड़ यादव क्षत्रिय मानना भूल है।मेजर अरसेकिंन साहिब ने भी राजपुताना गजेटियर सन् 1908 में यादव क्षत्रियों के 56 तड़नें या कुल माने है ।वायुपुराण के अनुसार यदुवंशियों के 11कुल कहे जाते है ।"कुलानि दश चैकं च यादवानाम महात्मनां " ।यदुवंश में यादव कुमारों को शिक्षा देने वाले आचार्यों की संख्या 3करोड़ 88 लाख थी फिर उन महात्मा यादवों की गणना कौन कर सकता था ।राजा उग्रसैन के साथ 1 नील के लगभग यदुवंशी सैनिक थे (श्रीमद्भभागवत पेज 598 )।चंद्रमा से श्री कृष्ण के समय तक कुल 46 राजाओं की पीढ़ीया हुई।भगवान् श्री राम कृष्ण जी से 21 पीढ़ी पहले हुये थे ।महाराज यदु की वंश में 42 पीढ़ी बाद वृष्णी राजा हुएजिनके पुत्र देवमीढुश हुये जिनकी अश्मकी नामक पत्नी से महाराज शूरसेन हुये जिनके मारिषा नाम की पत्नी से वासुदेव आदि 10 पुत्र व् कुन्ती आदि 5 पुत्रियां हुई ।वासुदेव जी की पत्नी देवकी जी जो अंधक वंशी यादव उग्रसैन के भाई देवक की पुत्री थीसे भगवान् श्री कृष्ण हुए ।कुछ जाति विशेष के इतिहासकारों ने अहीरों या गोपों के शासक नन्द जी को यदुवंशियों से जोड़ने के प्रयाश में श्री कृष्ण के 4पीढ़ी पूर्व देवमीढु यदुवंशी राजा की क्षत्रिय पत्नी जो इक्ष्वाकु वंश की राजकुमारी अश्मकी थी उससे महाराज शूरसेन पैदा हुए जिनके वासुदेव जी थे और देवमीढुश की वैश्य जाति की पत्नी से पर्जन्य उत्पन्न हुए जिनके पुत्र नन्द जी हुये जिनसे अहीर या गोप अपनी उत्तपति बताते है जो बिलकुल असत्य है जिसका कोई उल्लेख पौराणिक साहित्य या इतिहास में नही मिलता है ।ऐसे में पर्जन्य की उत्तपति एक मिथक प्रयास कहा जासकता है ।इस सम्बन्ध में पौराणिक एवं ऐतिहासिक कोई भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिससे यह प्रमाणित हो सके कि अहीर जाति राजा यदु से उत्पन्न यदुवंश में उत्पन्न है ।आधुनिक देशी व् विदेशी इतिहासकारों ने भी इस जाति का यदु के वंश से कोई सम्वन्ध नही बताया है ।और नही भगवान् कृष्ण के किसी वंशज से इनका सम्वन्ध है। पूर्व काल से ही गोपों और यदुवंशी क्षत्रियों का सामजिक जीवन भिन्न रहा है।इतिहास का अध्ययन व् चिंतन किये बिना कोई कुछ भी लिख दे तो वही सत्य नहीं माना जासकता है।आजकल व्यक्ति अपनी महत्वाकांक्षा के लिए सत्य को भुला कर असत्य की खोज करने में लगरहा है।
श्रीमद्वाभागवत और अन्य पौराणिक ग्रंथों के अनुसार वर्णन मिलता है कि श्री कृष्ण और बलराम के नामकरण संस्कार कराने के लिए वासुदेव जी ने यदुवंशियों के कुलगुरु महर्षि गर्गाचार्य को गोकुल में भेजा था जिन्होंने कंश के भय से गौशाला में छिप कर गर्गाचार्य जी नामकरण संस्कार कराया था ।यह रहस्य नन्द गोप ने अपने अन्य भाई बन्ध गोपों से भी छिपाया था ।यदि नन्द जी यदुवंश में उत्पन्न होते तो वे कृष्ण और बलराम जी का नामकरण अपने कुल गुरु महर्षि शाडिंलया से क्यों नहीं कराया ।क्यों कि एक ही वंश के दो कुलगुरु नहीं होसकते ।गर्गाचार्य जी को सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादवों ने महाराज शूरसेन की इच्छा से मथुरापुरी में अपने पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित किया था ।उस समय उग्रसेन मथुरा के राजा थे।गर्ग जी की इच्छा से ही वासुदेव और देवकी जी का विवाह हुआ था ।महावन में नंदपत्नी के गर्भ से योगमाया ने स्वतः जन्म ग्रहण किया था ।यशोदा जी को गोपी कहा गया है (गर्ग स0 पेज 30 ) ।नन्द जी ब्रज में शोणपुर के शासक थे।नन्द जी ने खुद कहा है कि मैं तो व्रजवासी गोप -गोपियों का आज्ञाकारी सेवक हूँ वरजेश्वर नंदराय जी कहते थे उनको सभी व्रजवासी ।नन्द जी और वासुदेव जी ने हमेशा हर जगह जहाँ भी मिले है एक दूसरे को मित्र ही कहा है सगे संबंधी नही ।
श्री कृष्ण की 8 पटरानी थी जिनमे रुक्मणी ,सत्यभामा ,कालिंदी ,सत्या , मित्रविन्दा ,भद्रा ,लक्ष्मणा ,और जामवंती ।इसके अलावा श्री कृष्ण जी ने नरकासुर के वंदी घर से लाई हुई 16100 कन्याओं से भी एक ही लग्न में विविधकाय हो कर विवाह किया और प्रत्येक कन्या से वाद में एक -एक कन्या व् दस -दस पुत्र हुए।इसके आलावा 8 पटरानियों से भी दस -दस पुत्र और एक -एक कन्या हुई।इस प्रकार भगवान् श्री कृष्ण के कुल 1लाख 70 हजार 1 सौ 88 संतानें थी जिनमें प्रधुम्न ,चारुदेशन ,और शाम्ब आदि 13 पुत्र प्रधान थे ।प्रधुम्न ने रुक्मी की पुत्री रुक्मवती से विवाह किया जिससे अनिरुद्ध जी पैदा हुए ।अनिरुद्ध जी ने भी रुक्मी की पौत्री सुभद्रा से बिवाह किया जिससे यदुकुल शिरोमणी यदुवंश प्रवर्तक श्री वज्रनाभ जी पैदा हुए ।वज्रनाभ जी के पुत्र प्रतिवाहु ,प्रतिवाहु के सुवाहू ,सुबाहु के शांतसेन् और शांतसेन् के शतसेन हुये ।यहाँ से ये यदुवंश या यादव वंश फिर अनेक शाखाओं और उपशाखाओं जैसे जादौन ,जडेजा ,भाटी ,चुडासमा ,सरवैया ,छौंकर ,जादव ,रायजादा ,बरेसरी ,जसावत ,जैसवार ,वनाफ़र ,बरगला ,यदुवंशी ,सोहा ,मुड़ेचा ,सोमेचा ,बितमन ,नारा ,पोर्च ,उरिया ,आदि में विभाजित होगया ।सन् 1900 के दशक तक यदुवंस के लोग यदुवंशी या यादव सरनेम लिखते थे ।कुछ इतिहासकारों ने बाद में यदु या यादव का अपभ्रंश जदु ,जादव ,जादों या जादौन कर दिया जो बाद में प्रचलन में आया ।महाकवि तुलसीदास जी ने रामायण में यदु वंश को जदुवंश कहा है ।
दुसरा प्रमाण यह है कि भगवान् श्री कृष्ण ने जरासंध के बार बार आक्रमण करने पर ब्रजमंडल की रक्षाभावना से योगमाया के द्वारा अपने समस्त स्वजन सम्बन्धियों को द्वारिका में पहुंचा दिया ।शेष प्रजा की रक्षा के लिए बलराम जी को मथुरा में छोड़ दिया ।इससे इस्पस्ट है कि श्री कृष्ण जी ने समस्त यदुवंशियों को ही द्वारिका पहुंचाया था जो उनके स्वजन संबंधी थे ,ना कि नन्द -यशोदा आदि गोपों को ।उनको तो ब्रज में ही छोड़ दिया था जिनसे काफी समय बाद सूर्यग्रहन पर्व पर कुरुक्षेत्र में आने पर पुनः नन्द ,यशोदा ,राधा जी तथा अन्य गोपों से ब्रज में मिले थे ।इससे प्रमाणित होता है कि नन्द जी गोप वंश के थे न कि यदुवंश से।नन्द आदि गोपों को यदुवंशियों का परम हितैषी कहा गया है न कि यदुवंस में उत्पन भाई के रूप में (श्रीमद् भागवत दशम स्कंध ,अध्य्याय 82 श्लोक 14 ) ।मत्स्य पुराण ,विष्णुपुराण ,गर्गसंहिता ,वायुपुराण ,हरिवंश पुराण ,अग्निपुराण ,महाभारत ,वरहमपुरान ,शुखसागर ,ब्रह्मवैवतरपुरान आदि अनेक पौराणिक ग्रंथों में नन्दादि गोपों का अहीर जाति के अनुसार वर्णन मिलता है ।श्री कृष्ण के लिए सभी जगह यादव /यदुवंशी शब्द का प्रयोग हुआ है ।अब यह बात अलग है कि कोई व्यक्ति किसी पौराणिक या ऐतिहासिक सन्दर्भ का अपने स्वार्थ या पक्ष में किस प्रकार अर्थ निकाल रहा है ,अर्थात अर्थ का अनर्थ कर रहा है ।इसके अलावा सैकड़ों प्रमाण है जिनसे यह सिद्ध होता है कि भगवान् श्री कृष्ण महाराज यदु के वंशज "यदुकुल शिरोमणी "है और नन्द जी के वंश का यदुवंश से कोई भी ताल -मेल का प्रमाण नही मिलता किसी भी प्रमाणिक सर्व मान्य ग्रन्थ या वेद में । गर्ग जी ने स्वयं नन्द जी से श्री कृष्ण के नामकरण के समय कहा था कि यह तुम्हारा पुत्र पहले वासुदेव जी के घर भी पैदा हुआ है।इस लिए इस रहस्य को जानने वाले लोग इस बालक को "श्रीमान वासुदेव "भी कहते है ।कृष्ण के वंश का वर्णन भी इस प्रकार है।
मंडलकमीशंन के सचिव सदस्य S. S. Gilके अनुसार "सच पूछिये तो जाति चिन्ह के रूप में "यादव "शब्द को 1920 के दशक में ढूंडा गया ,जब कई परम्परागत पशु पालक जातियों ने एकजुट होकर भगवान् कृष्ण से अपने वंश का सम्बन्ध जताते हुये अपने इस्तर को ऊपर उठाना चाहा ।उनका कहना था कि कृष्ण स्वयंम पशुपालक थे और "राजा यदु "के वंशज थे ।इस लिए वे इस नतीजे पर पहुंचे कि यह सव जातियां वस्तुतः भगवान् कृष्ण के वंशज है इस लिए उन्हें अपने को "यादव" कहना चाहिये ।किंत्तु यह सही नहीं है ।यह ठीक है कि यादव उस समय विभिन्न गोत्रों /उपनामों का प्रयोग कर रहे थे और उनमें स्वयंम छोटे -बड़े की भावना घर कर गयी ।लेकिन अब समय के अनुसार सभी यदुवंशियों को पुनः संगठित होना चाहिए ।संगठन में बहुत बड़ी ताकत होती है ।इसके साथ -साथ शिक्षित भी होना अति आवस्यक है जिससे समाज में विकास संभव हो ।आज का युग शिक्षा और सम्रद्धि का युग है ।जिस समाज के पास ये दोनों है वही समाज आज विकास की ओर अग्रसर है ।जय हिन्द ।जय यदुवंश ।जय श्री कृष्णा ।
प्रचार -प्रसार द्वारा - राज यदुवंशी , सुल्तानपुर बहेड़ी बरेली( यूपी)
        ऍम ए इतिहास , पीजी डिप्लोमा इन मैनेजमेंट
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन  ,व्याख्याता कृषि ,राजकीय महाविद्यालय सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ।
लेखक आभारी है श्री महावीर सिंह जी ,पूर्व प्रवक्ता हिंदी ,ग्राम -रणवारी ,तहसील -छाता ,जिला -मथुरा ,उत्तरप्रदेश जिनकी मदद से ये लेख लिखा गया है ।मैं उनका तहे दिल से आभार प्रकट करता हूँ और भविष्य में आशा करता हूँ कि वे अपना यदुवंश इतिहास लेखन में सहयोग देते रहेंगे ।जय श्री राधे -कृष्णा । सभी यदुवंशी भाइयों को सादर प्रणाम । 

जैसा दोगें वैसा ही लौट कर थाली में वापिस आएगा

जैसा दोगें वैसा ही लौट कर थाली में वापिस आएगा



एक बार एक सर्वगुणी राजा घोड़े के तबेलें में घुमनें में व्यस्त थे तभी एक साधु भिक्षा मांगने के लिए तबेलें में ही आए और राजा से बोले  "मम् भिक्षाम् देहि..!!" राजा ने बिना विचारे तबेलें से घोडें की लीद उठाई और उसके पात्र में डाल दी। राजा ने यह भी नहीं विचारा कि इसका परिणाम कितना दुखदायी होगा। साधु भी शांत स्वभाव होने के कारण भिक्षा ले वहाँ से चले गए। और कुटिया के बाहर एक कोने में डाल दी। कुछ समय उपरान्त राजा उसी जंगल में शिकार वास्ते गए। राजा ने जब जंगल में देखा एक कुटिया के बाहर घोड़े की लीद का ढेर लगा था। उसने देखा कि यहाँ तो न कोई तबेला है और न ही दूर-दूर तक कोई घोडें दिखाई दे रहे हैं। वह आश्चर्यचकित हो कुटिया में गए और साधु से बोले "महाराज! आप हमें एक बात बताइए यहाँ कोई घोड़ा भी नहीं न ही तबेला है तो यह इतनी सारी घोड़े की लीद कहा से आई !" साधु ने कहा " राजन्! लगता है आपने हमें पहचाना नही! यह लीद तो आपकी ही दी हुई है!" यह सुन राजा ने उस साधु को ध्यान से देखा और बोले हाँजी महाराज! आपको हमने पहचान लिया। पर आप हमें एक बात का जवाब दीजिए हमने तो थोड़ी-सी लीद दी थी पर यह तो बहुत सारी हो गयी है इतनी सारी कैसे हो गयी कृपया कर हमें विस्तार से समझाइए। साधु ने कहा "आप जितनी भी भिक्षा देते है और जो भी देते है वह दिन-प्रतिदिन प्रफुल्लित हो जाती है यह उसी का परिणाम है। और जब हम यह शरीर छोड़ते है तो आपको यह सब खानी पड़ेगी।" राजा यह सब सुनकर दंग रह गया और नासमझी के कारण आँखों में अश्रु भर चरणों में नतमस्तक हो साधु महाराज से विनती कर बोले "महाराज! मुझे क्षमा कर दीजिए मैं तो एक रत्ती भर लीद नहीं खा सकूँगा।आइन्दा मैं ऐसी गलती कभी नहीं करूँगा।" कृपया कोई ऐसा उपाय बता दीजिए! जिससे मैं अपने कर्मों को वजन हल्का कर सकूँ!" साधु ने जब राजा की ऐसी दुखमयी हालात देखी तो उन्होंने कहा "राजन्! एक उपाय है जिसमें आपको ऐसा कारज करना है जिससे सभी प्रजाजन आपकी निंदा करें आपको ऐसा कोई कारज नहीं करना है जो गलत हो! आपको अपने को दूसरों की नज़र में गलत दर्शाना है बस!! और अपनी नजर में वह कारज आपने न किया हो।" यह सुन राजा ने महल में आ काफी सोच-विचार कर जिससे कि उनकी निंदा हो वह उसी रात एक वैश्या के कोठे पर बाहर ही चारपाई पर रात भर बैठ रात बिता जब सब प्रजाजन उठ गए तो वापिस आये तो सब लोग आपस में राजा की निंदा करने लगे कि कैसा राजा है कितना निंदनीय कृत्य कर रहा है क्या यह शोभनीय है ??  बगैरा-बगैरा!! इसप्रकार की निंदा से राजा के पाप की गठरी हल्की होने लगी। अब राजा दोबारा उसी साधु के पास गए तो घोड़े की लीद के ढेर को मुट्ठी भर में परवर्तित देख बोले "महाराज! यह कैसे हुआ? ढेर में इतना बड़ा परिवर्तन!!" साधू ने कहा "यह निंदा के कारण हुआ है राजन् आपकी निंदा करने के कारण सब प्रजाजनों में बराबर-बराबर लीद आप बँट गयी है जब हम किसी की बेवजह निंदा करते है तो हमें उसके पाप का बोझ उठाना होता है अब जो तुमने घोड़े की लीद हमें दी थी वह ही पड़ी ही वह तो आपको ही थाली में दी जायेगी। अब इसको तुम चूर्ण बना के खाओ, सब्जी में डाल के खाओ या पानी में घोलकर पीओ यह तो आपको ही खानी पड़ेगी राजन्! अपना किया कर्म तो हमें ही भुगतना है जी चाहे हँस के भुगतो या रो कर सब आप ही भोगना है।
"जैसा दोगें वैसा ही लौट कर थाली में वापिस आएगा!"