#इतिहास_काशी_का -: देवाधिदेव महादेव शिव की नगरी हैं काशी हजारों साल पुरानी इस नगरी में आज भी प्राचीन परंपराएं अपने जीवंत स्वरूप में मौजूद हैं ऐसी ही एक परंपरा जो यहां सदियों से चली आ रही हैं वह हैं, श्रावण मास के सोमवार के दिन विश्वेश्वर भगवान शिव के सामूहिक जलाभिषेक की। परंपरानुसार काशी के यादव बंधु अपने पारंपरिक वेष-भूषा में हर साल सबसे पहले भगवान विश्वेश्वर का पवित्र गंगाजल से सामूहिक अभिषेक करते हैं।
1. पचास हजार यदुवंशी करते हैं जलाभिषेक
काशी में सावन के पवित्र महीने के प्रथम सोमवार को हजारों साल पुरानी परंपरा निभाई जाती है।श्रावण मास का प्रथम सोमवार अपने आप में ही महाफलदायी माना गया है। महादेव की आराधना वाले इस शुभ दिवस पर वारणसी में यदुवंशी समाज के लोग श्रीकाशी विश्वनाथ मंदिर सहित शहर के लगभग हर शिवालयों में जाकर पतित पावनी माता गंगा के जल से शिवलिंगों का जलाभिषेक करते हैं।
2. पहले किया जाता था दुग्धाभिषेक
इस संबंध में ईनाडु इंडिया के संवाददाता ने यदुवंशी विद्वानों से बातचीत की। शिवभक्त दिलीप यादव बताते हैं, ''एक बार द्वापरयुग में धरती पर प्रलय की स्थिति उत्पन्न हुई। ऐसी स्थिति में मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी और आर्य संस्कृति की आधार मानी गई गऊ माताएं भी अकाल मौत को प्राप्त होने लगीं। ऐसी स्थिति देख खुद भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने हाथों से प्रलयनाथ और विश्वनाथ महादेव शिव का दुग्धाभिषेक किया। भगवान विष्णु के पूर्णावतार श्रीकृष्ण द्वारा दुग्धाभिषेक किये जाने से शिव अत्यंत प्रसन्न हुए और प्रलय लीला की समाप्ति हुई। इसके बाद हर वर्ष श्रावण मास में यदुवंशियों द्वारा शिव का दुग्धाभिषेक किया जाने लगा।
3. और फिर शुरू हुआ जलाभिषेक
कहते हैं बीच में कुछ काल के लिए भगवान शिव का सामूहिक दुग्धाभिषेक बंद हो गया और तकरीबन पांच हजार वर्ष पूर्व धरती पर एकबार फिर प्रलयलीला शुरू हुई। इस बार ब्राह्मणों और ऋषियों ने भगवान श्रीकृष्ण का समरण कराते हुए एक बार फिर यादव बंधुओं का आह्वान किया। लेकिन, बड़े पैमाने पर गोवंश की हानि होने के कारण दूध का आभाव हो गया तब यदुवंशियों ने समझदारी दिखाते हुए भोले भंडारी का गंगाजल से अभिषेक करना शुरू किया। ये परंपरा आज भी कायम हैं !
काशी में यदुवंश के इतिहास की अच्छी जानकारी रखने वाले सतीश फौजी बताते हैं कि बीच में यह परंपरा कुछ समय के लिए रुक गयी थी। अंग्रेजों के शासनकाल में इस परंपरा में रुकावट आई थी लेकिन काशी की जनता और यदुवंशियों की भारी मांग को देखते हुए ब्रिटिश हुकूमत को झुकना पड़ा और इस परंपरा को फिर से पुनर्जीवित किया गया। इसके बाद सन 1932 से यह परंपरा अनवरत हैं फौजी के अनुसार समाज कल्याण के उद्देश्य से आज भी यादव बंधुओं द्वारा इस परंपरा का निर्वाहन किया जा रहा हैं, जिसमें शामिल होने के लिए यादव परिवार का बच्चा-बच्चा काफी उत्साह से भाग लेता हैं...!!