बुधवार, 27 जुलाई 2016

What is Doping Test

क्या है डोपिंग टेस्ट का मकड़जाल और इसमें कैसे फंसते हैं खिलाड़ी?


डोप टेस्ट में पहलवान नरसिंह यादव के फेल होने से रियो ओलंपिक में भारत की मेडल जीतने की उम्मीदों को झटका लगने के साथ ही फजीहत भी हुई है.
ऐसे में सवाल उठता है कि कोई खिलाड़ी डोपिंग क्यों करता है? डोप टेस्ट क्या होता है? यह टेस्ट कौन लेता है? इसके कानूनी प्रावधान क्या है? कोई खिलाड़ी अगर डोप टेस्ट में फेल होता है तो फिर इस पर क्या कार्रवाई होती है?
डोपिंग का जाल
आम तौर पर एक खिलाड़ी का करियर छोटा होता है. अपने सर्वश्रेष्ठ फॉर्म में होने के समय ही ये खिलाड़ी अमीर और मशहूर हो सकते हैं. इसी जल्दबाजी और शॉर्टकट तरीके से मेडल पाने की भूख में कुछ खिलाड़ी अक्सर डोपिंग के जाल में फंस जाते हैं.
यह बीमारी केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में फैली हुई है. हाल ही में अंतरराष्ट्रीय खेल पंचाट ने डोपिंग को लेकर रूस की अपील खारिज कर दी, जिससे रूस की ट्रैक और फील्ड टीम रियो ओलंपिक में भाग नहीं ले सकेगी. यहां तक कि बीजिंग ओलंपिक 2008 के 23 पदक विजेताओं समेत 45 खिलाड़ी पॉजीटिव पाए गए. बीजिंग और लंदन ओलंपिक के नमूनों की दोबारा जांच में नाकाम रहे खिलाड़ियों की संख्या अब बढ़कर 98 हो गई है.
1968 में पहली बार हुई थी फजीहत
भारत में डोपिंग को लेकर बड़ा खुलासा 1968 के मेक्सिको ओलंपिक के ट्रायल के दौरान हुआ था, जब दिल्ली के रेलवे स्टेडियम में कृपाल सिंह 10 हजार मीटर दौड़ में भागते समय ट्रैक छोड़कर सीढ़ियों पर चढ़ गए थे. उस दौरान कृपाल सिंह के मुंह से झाग निकलने लगा था और वे बेहोश हो गए थे. जांच में पता चला कि कृपाल ने नशीले पदार्थ ले रखे थे, ताकि मेक्सिको ओलंपिक के लिए क्वालिफाई कर पाएं. इसके बाद तो फिर डोपिंग के कई मामले सामने आए.
अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के नियमों के अनुसार डोपिंग के लिए खिलाड़ी और केवल खिलाड़ी ही जिम्मेदार होता है. डोपिंग में आने वाली दवाओं को पांच श्रेणियों में रखा गया है. ये हैं- स्टेरॉयड, पेप्टाइड हार्मोन, नार्कोटिक्स, डाइयूरेटिक्स और ब्लड डोपिंग.
क्या है वाडा और नाडा?
किसी भी खिलाड़ी का डोप टेस्ट विश्व डोपिंग विरोधी संस्था (वाडा) या राष्ट्रीय डोपिंग विरोधी (नाडा) ले सकता है. अंतरराष्ट्रीय खेलों में ड्रग्स के बढ़ते चलन रोकने के लिए वाडा की स्थापना 10 नवंबर, 1999 को स्विट्जरलैंड के लुसेन शहर में की गई थी. इसी के बाद हर देश में नाडा की स्थापना की जाने लगी. इसके दोषियों को 2 साल सजा से लेकर आजीवन पाबंदी तक सजा का प्रावधान है.
कैसे लिया जाता है टेस्ट?
किसी भी खिलाड़ी का कभी भी डोप टेस्ट लिया जा सकता है. इसके लिए संबंधित फेडरेशन को जिम्मेदारी दी गई है. किसी प्रतियोगिता से पहले या प्रशिक्षण शिविर के दौरान डोप टेस्ट अक्सर लिए जाते हैं. ये टेस्ट नाडा या फिर वाडा की तरफ से कराए जाते हैं. वह खिलाड़ियों के मूत्र को वाडा नाडा के विशेष लेबोरेट्री में पहुंचाती है.
नाडा की लेबोरेट्री नई दिल्ली में है. ‘ए’ टेस्ट में पॉजीटिव आने पर खिलाड़ी को बैन किया जा सकता है. यदि खिलाड़ी चाहे तो ‘बी’ टेस्ट के लिए एंटी डोपिंग पैनल में अपील कर सकता है. इसके बाद फिर नमूने की जांच होती है. यदि ‘बी’ टेस्ट भी पॉजीटिव आए तो अनुशासन पैनल खिलाड़ी पर पाबंदी लगा सकती है.

सोमवार, 4 जुलाई 2016

योगेन्द्र सिंह यादव




योगेन्द्र सिंह यादव
पूरा नाम
ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव
जन्म
जन्म भूमि
औरंगाबाद अहीर गांव, बुलंदशहर,उत्तर प्रदेश
अभिभावक
पिता- श्री करन सिंह यादव (भूतपूर्व सैनिक)
पुरस्कार-उपाधि
नागरिकता
भारतीय
संबंधित लेख
रैंक
नायब सूबेदार
यूनिट
18 ग्रेनेडियर्स
अन्य

जानकारी
योगेन्द्र सिंह यादव जब भारतीय सेनामें नियुक्त हुए तब उनकी उम्र केवल 16 वर्ष पाँच महीने की थी। 19 वर्ष की आयु में वह परमवीर चक्र विजेता बन गए।









ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव (अंग्रेज़ी: Yogendra Singh Yadav, जन्म: 10 मई, 1980) परमवीर चक्र से सम्मानित भारतीय व्यक्ति है। इन्हें यह सम्मान सन 1999 में मिला। युद्ध के मोर्चे पर दुश्मन के छक्के छुड़ाते हुए अपने प्राणों की बलि देने वाले जवानों की सूची बड़ी लम्बी है, जिन्होंने राष्ट्र की उत्कृष्ट शौर्य परम्परा को जीवन्त किया। कारगिल युद्ध के बाद भारतीय सेना के चार शूरवीरों को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। उन्हीं में एक ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव भी हैं।
जीवन परिचय
सबसे कम मात्र 19 वर्ष कि आयु में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले इस वीर योद्धा योगेन्द्र सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के औरंगाबाद अहीर गांव में 10 मई, 1980 को हुआ था। 27 दिसंबर, 1996 को सेना की 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हुए योगेन्द्र सिंह यादव की पारिवारिक पृष्ठभूमि भी सेना की ही रही है, जिसके चलते वो इस ओर तत्पर हुए।
भारत-पाकिस्तान युद्ध (1999)
  मुख्य लेख : कारगिल युद्ध
मई-जुलाई 1999 में हुई भारत और पाकिस्तान की कारगिल की लड़ाई वैसे तो हमेशा की तरह, भारत की विजय के साथ खत्म हुई, लेकिन उसे बहुत अर्थों में एक विशिष्ट युद्ध कहा जा सकता है। एक तो यह कि, यह लड़ाई पाकिस्तान की कुटिल छवि को एक बार फिर सामने लाने वाली कही जा सकती है। पाकिस्तान इस लड़ाई की योजना के साथ कई वर्षों से जाँच परख भरी तैयारी कर रहा था, भले ही ऊपरी तौर पर वह खुद को शांति वाहक बताने से भी चूक नहीं रहा था। दूसरी ओर, यह लड़ाई बेहद कठिन मोर्चे पर लड़ी गई थी। तंग संकरी पगडंडी जैसे पथरीले रास्ते, और बर्फ से ढकी पहाड़ की चोटियाँ। यह ऐसे माहौल की लड़ाई थी, जिसकी हमारे सैनिक सामान्यतः उम्मीद नहीं कर सकते थे, दूसरी तरफ, पाकिस्तान के सैनिकों को इस दुश्वार जगह युद्ध का अध्यान न जाने कब से दिलाया जा रहा था। इस युद्ध में भारत के चार योद्धाओं को परमवीर चक्र दिए गए, जिनमें से दो योद्धा इसे पाने से पहले ही वीरगति को प्राप्त हो गए। सम्मान सहित स्वयं उपस्थित होकर जिन दो बहादुरों नें यह परमवीर चक्र पाया, उनमें से एक थे ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव, जो 18 ग्रेनेडियर्स में नियुक्त थे। इनके पिता करन सिंह यादव भी भूतपूर्व सैनिक थे वह कुमायूँ रेजिमेंट से जुड़े हुए थे और 1965 तथा 1971 की लड़ाइयों में हिस्सा लिया था। पिता के इस पराक्रम के कारण योगेन्द्र सिंह यादव तथा उनके बड़े भाई जितेन्द्र दोनों फौज में जाने को लालायित थे। दोनों के अरमान पूरे हुए। बड़े भाई जितेन्द्र सिंह यादव आर्टिलरी कमान में गए और योगेन्द्र सिंह यादव ग्रेनेडियर बन गए। योगेन्द्र सिंह यादव जब सेना में नियुक्त हुए तब उनकी उम्र केवल 16 वर्ष पाँच महीने की थी। 19 वर्ष की आयु में वह परमवीर चक्र विजेता बन गए। उन्होंने यह पराक्रम कारगिल की लड़ाई में टाइगर हिल के मोर्चे पर दिखाया।
कारगिल की लड़ाई में पाकिस्तान का मंसूबा कश्मीर को लद्दाख से काट देने का था, जिसमें वह श्रीनगर-लेह मार्ग को बाधित करके कारगिल को एकदम अलग-थलग कर देना चाहते थे, ताकि भारत का सियाचिन से सम्पर्क मार्ग टूट जाए इस तरह पाकिस्तान का यह मंसूबा भी कश्मीर पर ही दांव लगाने के लिए था। टाइगर हिल इसी पर्वत श्रेणी का एक हिस्सा था। द्रास क्षेत्र में स्थित टाइगर हिल का महत्व इस दृष्टि से था कि यहाँ से राष्ट्रीय राजमार्ग 1A पर नियंत्रण रखा जा सकता था। इस राज मार्ग पर अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए पाकिस्तानी फौजी ने अपनी जड़ें मजबूती से जमा रखी थीं और उनका वहाँ हथियारों और गोलाबारूद का काफ़ी जखीरा पहुँचा हुआ था। भारत के लिए इस ठिकाने से दुश्मन को हटाना बहुत जरूरी था। टाइगर हिल को उत्तरी, दक्षिणी तथा पूर्वी दिशाओं से भारत की 8 सिख रेजिमेंट ने पहले ही अलग कर लिया था और उसका यह काम 21 मई को ही पूरा हो चुका था। पश्चिम दिशा से ऐसा करना दो कारणों से नहीं हुआ था। पहला तो यह, कि वह हिस्सा नियंत्रण रेखा के उस पार पड़ता था, जिसे पार करना भारतीय सेना के लिए शिमला समझौते के अनुसार प्रतिबन्धित था, लेकिन पाकिस्तान ने उस समझौते का उलंघन कर लिया था दूसरा कारण यह था कि अब पूरी रिज पर दुश्मन घात लगा कर बैठ चुका था। ऐसी हालत में भारत के पास आक्रमण ही सिर्फ एक रास्ता बचा था।
टाइगर हिल पर तिरंगा
3-4 जुलाई 1999 की रात को 18 ग्रेनेडियर्स को यह जिम्मा सौंपा गया कि वह पूरब की तरफ से टाइगर हिल को कब्जे में करें। उसके लिए वह 8 सिख बटालियन को साथ ले लें। इसी तरह 8 सिह बटालियन को भी यय जिम्मा सौंपा गया कि वह हमले का दवाब दक्षिण तथा उत्तर से बनाए रखें और इस तरह टाइगर हिल को पश्चिम की तरफ से अलग-थलग कर दें। रात साढ़े 8 बजे टाइगर हिल पर आक्रमण का सिलसिला शुरू किया गया। 4 जुलाई 1999 को आधी रात के बाद डेढ़ बजे 18 ग्रेनेडियर्स ने टाइगर हिल के एक हिस्से पर अपना कब्जा जमा लिया। इसी तरह सुबह 4.00 बजे तक 8 सिख बटालियन ने भी अपने हमलों का दबाव बनाते हुए पश्चिमी छोर से टाइगर हिल के महत्त्वपूर्ण ठिकाने अपने काबू में कर लिए और 5 जुलाई को यह मोर्चा काफ़ी हद तक फ़तह हो गया। इस बीच 18 ग्रेनेडियर्स ने अपने हमले जारी रखे और भारी प्रतिरोध के बावजूद टाइगर हिल को पूरी तरह हथियाने का काम चलता रहा। 8 सिख बटालियन पाकिस्तानी फौजों के जवाबी हमले नाकामयाब करती रहीं और इस तरह 11 जुलाई को टाइगर हिल पूरी तरह भारत के कब्जे में आ गया।
अदम्य साहस का परिचय
3-4 जुलाई 1999 से शुरू होकर 11 जुलाई 1999 तक चलने वाला विजय अभियान इतना सरल नहीं था और उसकी सफलता में ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव का बड़ा योगदान है। ग्रेनेडियर यादव की कमांडो प्लाटून 'घटक' कहलाती थी। उसके पास टाइगर हिल पर कब्जा करने के क्रम में लक्ष्य यह था कि वह ऊपरी चोटी पर बने दुश्मन के तीन बंकर काबू करके अपने कब्जे में ले। इस काम को अंजाम देने के लिए 16,500 फीट ऊँची बर्फ से ढकी, सीधी चढ़ाई वाली चोटी पार करना जरूरी था। इस बहादुरी और जोखिम भरे काम को करने का जिम्मा स्वेच्छापूर्णक योगेन्द्र ने लिया और अपना रस्सा उठाकर अभियान पर चल पड़े। वह आधी ऊँचाई पर ही पहुँचे थे कि दुश्मन के बंकर से मशीनगन गोलियाँ उगलने लगीं और उनके दागे गए राकेट से भारत की इस टुकड़ी का प्लाटून कमांडर तथा उनके दो साथी मारे गए। स्थिति की गम्भीरता को समझकर योगेन्द्र सिंह ने जिम्मा संभाला और आगे बढ़ते बढ़ते चले गए। दुश्मन की गोलाबारी जारी थी। योगेन्द्र सिंह लगातार ऊपर की ओर बढ़ रहे थे कि तभी एक गोली उनके कँधे पर और रो गोलियाँ उनकी जाँघ पेट के पास लगीं लेकिन वह रुके नहीं और बढ़ते ही रहे। उनके सामने अभी खड़ी ऊँचाई के साठ फीट और बचे थे। उन्होंने हिम्मत करके वह चढ़ाई पूरी कीऔर दुश्मन के बंकर की ओर रेंगकर गए और एक ग्रेनेड फेंक कर उनके चार सैनिकों को वहीं ढेर कर दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना यादव ने दूसरे बंकर की ओर रुख किया और उधर भी ग्रेनेड फेंक दिया। उस निशाने पर भी पाकिस्तान के तीन जवान आए और उनका काम तमाम हो गया। तभी उनके पीछे आ रही टुकड़ी उनसे आ कर मिल गई। आमने-सामने की मुठभेड़ शुरू हो चुकी थी और उस मुठभेड़ में बचे-खुचे जवान भी टाइगर हिल की भेंट चढ़ गए। टाइगर हिल फ़तह हो गया था और उसमें ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह का बड़ा योगदान था। अपनी वीरता के लिए ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह ने परमवीर चक्र का सम्मान पाया और वह अपने प्राण देश के भविष्य के लिए भी बचा कर रखने में सफल हुए यह उनका ही नहीं देश का भी सौभाग्य है।[1]
टाइगर हिल का टाइगर
भारत और पाकिस्तान की नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान समर्थित घुसपैठियों 1999 के प्रारम्भ में कारगिल क्षेत्र की 16 से 18 हजार फुट ऊंची पहाड़ियों पर कब्जा जमा लिया था। मई1999 के पहले सप्ताह में इन घुसपैठियों ने श्रीनगर को लेह से जोड़ने वाले महत्वपूर्ण राजमार्ग पर गोलीबारी आरंभ कर दी। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए भारत ने इन घुसपैठियों के विरुद्ध 'आपरेशन विजय' के तहत कार्रवाई आरंभ की। इसके बाद संघर्षों का सिलसिला आरंभ हो गया। हड्‌डी गला देने वाली ठंड में भी भारतीय सेना के रणबांकुरों ने दुश्मनों का डट कर मुकाबला किया। 2 जुलाई को कमांडिंग आफिसर कर्नल कुशल ठाकुर के नेतृत्व में 18 ग्रेनेडियर को टाइगर हिल पर कब्जा करने का आदेश मिला। इसके लिए पूरी बटालियन को तीन कंपनियों- ‘अल्फा’, ‘डेल्टा’ व ‘घातक’ कम्पनी में बांटा गया। ‘घातक’ कम्पनी में ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव सहित 7 कमांडो शामिल थे। 4 जुलाई की रात में पूर्व निर्धारित योजनानुसार कुल 25 सैनिकों का एक दल टाइगर हिल की ओर बढ़ा। चढ़ाई सीधी थी और कार्य काफ़ी मुश्किल। टाइगर हिल में घुसपैठियों की तीन चौकियां बनीं हुई थीं। एक मुठभेड़ के बाद पहली चौकी पर कब्जा कर लिया गया। इसके बाद केवल 7 कमांडो वाला दल आगे बढ़ा। यह दल अभी कुछ ही दूर आगे बढ़ा था की दुश्मन की ओर से अंधाधुंध गोलीबारी आरंभ हो गयी। इस गोलीबारी में दो सैनिक शहीद हो गए। इन दोनों शहीदों को वापस छोड़कर शेष 05 जाबांज सैनिक आगे बढ़े। किन्तु एक भीषण मुठभेड़ में इन पांचों में चार शहीद हो गए और बचे केवल ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव। हालाँकि वह बुरी तरह घायल हो गए थे, उनकी बाएं हाथ की हड्‌डी टूट गई थी और हाथ ने काम करना बन्द कर दिया था। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। योगेन्द्र सिंह ने हाथ को बेल्ट से बांधकर कोहनी के बल चलना आरंभ किया। इसी हालत में उन्होंने अपनी ए.के.-47 राइफल से 15-20 घुसपैठियों को मार गिराया। इस तरह दूसरी चौकी पर भी भारत का कब्जा हो गया। अब उनका लक्ष्य 17,500 फुट की ऊंचाई पर स्थित चौकी पर कब्जा करना था। अत: वह धुआंधार गोलीबारी करते हुए आगे बढ़े, जिससे दुश्मन को लगने लगा कि काफ़ी संख्या में भारतीय सेना यहां पहुंच गई है। कुछ दुश्मन भाग खड़े हुए, तो कुछ चौकी में ही छिप गए, किन्तु ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव ने अपने अद्‌भुत साहस का परिचय देते हुए शेष बचे घुसपैठियों को भी मार गिराया और तीसरी चौकी पर कब्जा जमा लिया। इस संघर्ष में वह और अधिक घायल हो गए पर अपनी जांबाजी से अंतत: योगेन्द्र सिंह यादव टाइगर हिल पर तिरंगा फहराने में सफल रहे।
इसी बीच उन्होंने पाकिस्तानी कमाण्डर की आवाज सुनी, जो अपने सैनिकों को 500 फुट नीचे भारतीय चौकी पर हमला करने के लिए आदेश दे रहा था। इस हमले की जानकारी अपनी चौकी तक पहुंचाने के योगेन्द्र सिंह यादव ने अपनी जान की बाजी लगाकर पत्थरों पर लुढ़कना आरंभ किया और अंतत : जानकारी देने में सफल रहे। उनकी इस जानकारी से भारतीय सैनिकों को काफ़ी सहायता मिली और दुश्मन दुम दबाकर भाग निकले। योगेन्द्र सिंह यादव के जख्मी होने पर यह भी खबर फैली थी कि वे शहीद हो गए, पर जो देश की रक्षा करता है, उसकी रक्षा स्वयं ईश्वर ने ही की. भारत सरकार ने ग्रेनेडियर योगेन्द्र सिंह यादव के इस अदम्य साहस, वीरता और पराक्रम के मद्देनजर परमवीर चक्र से सम्मानित किया। सबसे कम मात्र 19 वर्ष कि आयु में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले इस वीर योद्धा ने उम्र के इतने कम पड़ाव में जांबाजी का ऐसा इतिहास रच दिया कि आने वाली सदियाँ भी याद रखेंगीं।[2]

लेख   bharatdiscovery.org/

स्वामी विवेकानन्द


4 जुलाई को वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि है। 114 साल पहले इसी दिन यानी 4 जुलाई 1902 को भारतीय चिंतन को समग्र विश्व में फैलाने वाले इस महापुरुष का अवसान हुआ था। स्वामी विवेकानंद की 114वीं पुण्यतिथि पर उनको शत-शत नमन


पूरा नाम स्वामी विवेकानन्द
अन्य नाम नरेंद्रनाथ दत्त (मूल नाम)
जन्म 12 जनवरी, 1863

जन्म भूमि कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता)

मृत्यु 4 जुलाई, 1902

मृत्यु स्थान रामकृष्ण मठ, बेलूर

अभिभावक विश्वनाथदत्त (पिता)
गुरु रामकृष्ण परमहंस

कर्म भूमि भारत

कर्म-क्षेत्र दार्शनिक, धर्म प्रवर्तक और संत
मुख्य रचनाएँ योग, राजयोग, ज्ञानयोग
विषय साहित्य, दर्शन और इतिहास

शिक्षा स्नातक
विद्यालय कलकत्ता विश्वविद्यालय

प्रसिद्धि आध्यात्मिक गुरु
नागरिकता भारतीय

स्वामी विवेकानन्द (अंग्रेज़ी: Swami Vivekananda, जन्म: 12 जनवरी, 1863 कलकत्ता - मृत्यु: 4 जुलाई, 1902 बेलूर) एक युवा सन्न्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगन्ध विदेशों में बिखरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान थे। विवेकानन्द जी का मूल नाम 'नरेंद्रनाथ दत्त' था, जो कि आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए। युगांतरकारी आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यवहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में जन्मे नरेंद्रनाथ चिंतन, भक्ति व तार्किकता, भौतिक एवं बौद्धिक श्रेष्ठता के साथ-साथ संगीत की प्रतिभा का एक विलक्षण संयोग थे। भारतमें स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

जीवन परिचय

श्री विश्वनाथदत्त पाश्चात्य सभ्यता में आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। श्री विश्वनाथदत्त के घर में उत्पन्न होने वाला उनका पुत्र नरेन्द्रदत्त पाश्चात्य जगत को भारतीय तत्त्वज्ञान का सन्देश सुनाने वाला महान विश्व-गुरु बना। स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 में कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता), भारत में हुआ। रोमा रोलाँ ने नरेन्द्रदत्त (भावी विवेकानन्द) के सम्बन्ध में ठीक कहा है- 'उनका बचपन और युवावस्था के बीच का काल योरोप के पुनरूज्जीवन-युग के किसी कलाकार राजपुत्र के जीवन-प्रभात का स्मरण दिलाता है।' बचपन से ही नरेन्द्र में आध्यात्मिक पिपासा थी। सन् 1884 में पिता की मृत्यु के पश्चात परिवार के भरण-पोषण का भार भी उन्हीं पर पड़ा। स्वामी विवेकानन्द ग़रीब परिवार के थे। नरेन्द्र का विवाह नहीं हुआ था। दुर्बल आर्थिक स्थिति में स्वयं भूखे रहकर अतिथियों के सत्कार की गौरव-गाथा उनके जीवन का उज्ज्वल अध्याय है। नरेन्द्र की प्रतिभा अपूर्व थी। उन्होंने बचपन में ही दर्शनों का अध्ययन कर लिया। ब्रह्मसमाज में भी वे गये, पर वहाँ उनकी जिज्ञासा शान्त न हुई। प्रखर बुद्धि साधना में समाधान न पाकर नास्तिक हो चली।

शिक्षा

1879 में 16 वर्ष की आयु में उन्होंने कलकत्ता से प्रवेश परीक्षा पास की। अपने शिक्षा काल में वे सर्वाधिक लोकप्रिय और एक जिज्ञासु छात्र थे। किन्तु हरबर्ट स्पेन्सर[1] के नास्तिकवाद का उन पर पूरा प्रभाव था। उन्होंने से स्नातक उपाधि प्राप्त की और ब्रह्म समाज में शामिल हुए, जो हिन्दू धर्म में सुधार लाने तथा उसे आधुनिक बनाने का प्रयास कर रहा था।

 रामकृष्ण से भेंट

युवावस्था में उन्हें पाश्चात्य दार्शनिकों के निरीश्वर भौतिकवाद तथा ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ भारतीय विश्वास के कारण गहरे द्वंद्व से गुज़रना पड़ा। परमहंस जी जैसे जौहरी ने रत्न को परखा। उन दिव्य महापुरुष के स्पर्श ने नरेन्द्र को बदल दिया। इसी समय उनकी भेंट अपने गुरुरामकृष्ण से हुई, जिन्होंने पहले उन्हें विश्वास दिलाया कि ईश्वर वास्तव में है और मनुष्य ईश्वर को पा सकता है। रामकृष्ण ने सर्वव्यापी परमसत्य के रूप में ईश्वर की सर्वोच्च अनुभूति पाने में नरेंद्र का मार्गदर्शन किया और उन्हें शिक्षा दी कि सेवा कभी दान नहीं, बल्कि सारी मानवता में निहित ईश्वर की सचेतन आराधना होनी चाहिए। यह उपदेश विवेकानंद के जीवन का प्रमुख दर्शन बन गया। कहा जाता है कि उस शक्तिपात के कारण कुछ दिनों तक नरेन्द्र उन्मत्त-से रहे। उन्हें गुरु ने आत्मदर्शन करा दिया था। पचीस वर्ष की अवस्था में नरेन्द्रदत्त ने काषायवस्त्र धारण किये। अपने गुरु से प्रेरित होकर नरेंद्रनाथ ने सन्न्यासी जीवन बिताने की दीक्षा ली और स्वामी विवेकानंद के रूप में जाने गए। जीवन के आलोक को जगत के अन्धकार में भटकते प्राणियों के समक्ष उन्हें उपस्थित करना था। स्वामी विवेकानंद ने पैदल ही पूरे भारत की यात्रा की।

देश का पुनर्निर्माण

रामकृष्ण की मृत्यु के बाद उन्होंने स्वयं को हिमालय में चिंतनरूपी आनंद सागर में डुबाने की चेष्टा की, लेकिन जल्दी ही वह इसे त्यागकर भारत की कारुणिक निर्धनता से साक्षात्कार करने और देश के पुनर्निर्माण के लिए समूचे भारत में भ्रमण पर निकल पड़े। इस दौरान उन्हें कई दिनों तक भूखे भी रहना पड़ा। इन छ्ह वर्षों के भ्रमण काल में वह राजाओं और दलितों, दोनों के अतिथि रहे। उनकी यह महान यात्रा कन्याकुमारी में समाप्त हुई, जहाँ ध्यानमग्न विवेकानंद को यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की ओर रुझान वाले नए भारतीय वैरागियों और सभी आत्माओं, विशेषकर जनसाधारण की सुप्त दिव्यता के जागरण से ही इस मृतप्राय देश में प्राणों का संचार किया जा सकता है। भारत के पुनर्निर्माण के प्रति उनके लगाव ने ही उन्हें अंततः 1893 में शिकागो धर्म संसद मं् जाने के लिए प्रेरित किया, जहाँ वह बिना आमंत्रण के गए थे, परिषद में उनके प्रवेश की अनुमति मिलनी ही कठिन हो गयी। उनको समय न मिले, इसका भरपूर प्रयत्न किया गया। भला, पराधीन भारत क्या सन्देश देगा- योरोपीय वर्ग को तो भारत के नाम से ही घृणा थी। एक अमेरिकन प्रोफेसर के उद्योग से किसी प्रकार समय मिला और 11 सितंबर सन् 1893 के उस दिन उनके अलौकिक तत्वज्ञान ने पाश्चात्य जगत को चौंका दिया। अमेरिका ने स्वीकार कर लिया कि वस्तुत: भारत ही जगद्गुरु था और रहेगा। स्वामी विवेकानन्द ने वहाँ भारत और हिन्दू धर्म की भव्यता स्थापित करके ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा। 'सिस्टर्स ऐंड ब्रदर्स ऑफ़ अमेरिका' (अमेरिकी बहनों और भाइयों) के संबोधन के साथ अपने भाषण की शुरुआत करते ही 7000 प्रतिनिधियों ने तालियों के साथ उनका स्वागत किया। विवेकानंद ने वहाँ एकत्र लोगों को सभी मानवों की अनिवार्य दिव्यता के प्राचीन वेदांतिक संदेश और सभी धर्मों में निहित एकता से परिचित कराया। सन् 1896 तक वे अमेरिकारहे। उन्हीं का व्यक्तित्व था, जिसने भारत एवं हिन्दू-धर्म के गौरव को प्रथम बार विदेशों में जाग्रत किया। 

धर्म एवं तत्वज्ञान के समान भारतीय स्वतन्त्रता की प्रेरणा का भी उन्होंने नेतृत्व किया। स्वामी विवेकानन्द कहा करते थे- 'मैं कोई तत्ववेत्ता नहीं हूँ। न तो संत या दार्शनिक ही हूँ। मैं तो ग़रीब हूँ और ग़रीबों का अनन्य भक्त हूँ। मैं तो सच्चा महात्मा उसे ही कहूँगा, जिसका हृदय ग़रीबों के लिये तड़पता हो।'

पाँच वर्षों से अधिक समय तक उन्होंने अमेरिका के विभिन्न नगरों, लंदन और पेरिस में व्यापक व्याख्यान दिए। उन्होंने जर्मनी,रूस और पूर्वी यूरोप की भी यात्राएं कीं। हर जगह उन्होंने वेदांत के संदेश का प्रचार किया। कुछ अवसरों पर वह चरम अवस्था में पहुँच जाते थे, यहाँ तक कि पश्चिम के भीड़ भरे सभागारों में भी। यहाँ उन्होंने समर्पित शिष्यों का समूह बनाया और उनमें से कुछ को अमेरिका के 'थाउज़ेंड आइलैंड पार्क' में आध्यात्मिक जीवन में प्रशिक्षित किया। उनके कुछ शिष्यों ने उनका भारत तक अनुसरण किया। स्वामी विवेकानन्द ने विश्व भ्रमण के साथ उत्तराखण्ड के अनेक क्षेत्रों में भी भ्रमण किया जिनमें अल्मोड़ा तथाचम्पावत में उनकी विश्राम स्थली को धरोहर के रूप में सुरक्षित किया गया है।

वेदांत धर्म

1897 में जब विवेकानंद भारत लौटे, तो राष्ट्र ने अभूतपूर्व उत्साह के साथ उनका स्वागत किया और उनके द्वारा दिए गए वेदांत के मानवतावादी, गतिशील तथा प्रायोगिक संदेश ने हज़ारों लोगों को प्रभावित किया। स्वामी विवेकानन्द ने सदियों के आलस्य को त्यागने के लिए भारतीयों को प्रेरित किया और उन्हें विश्व नेता के रूप में नए आत्मविश्वास के साथ उठ खड़े होने तथा दलितों व महिलाओं को शिक्षित करने तथा उनके उत्थान के माध्यम से देश को ऊपर उठाने का संदेश दिया। स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की कि सभी कार्यों और सेवाओं को मानव में पूर्णतः व्याप्त ईश्वर की परम आराधना बनाकर वेदांत धर्म को व्यवहारिक बनाया जाना ज़रूरी है। वह चाहते है कि भारत पश्चिमी देशों में भी आध्यात्मिकता का प्रसार करे। स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की कि सिर्फ़ अद्वैत वेदांत के आधार पर ही विज्ञान और धर्म साथ-साथ चल सकते हैं, क्योंकि इसके मूल में अवैयक्तिक ईश्वर की आधारभूत धारणा, सीमा के अंदर निहित अनंत और ब्रह्मांड में उपस्थित सभी वस्तुओं के पारस्परिक मौलिक संबंध की दृष्टि है। उन्होंने सभ्यता को मनुष्य में दिव्यता के प्रतिरूप के तौर पर परिभाषित किया और यह भविष्यवाणी भी की कि एक दिन पश्चिम जीवन की अनिवार्य दिव्यता के वेदांतिक सिद्धान्त की ओर आकर्षित होगा। विवेकानंद के संदेश ने पश्चिम के विशिष्ट बौद्धिकों, जैसे विलियम जेम्स, निकोलस टेसला, अभिनेत्री सारा बर्नहार्ड और मादाम एम्मा काल्व, एंग्लिकन चर्च, लंदन के धार्मिक चिंतन रेवरेंड कैनन विल्वरफ़ोर्स, और रेवरेंड होवीस तथा सर पैट्रिक गेडेस, हाइसिंथ लॉयसन, सर हाइरैम नैक्सिम, नेल्सन रॉकफ़ेलर, लिओ टॉल्स्टॉय व रोम्यां रोलां को भी प्रभावित किया। अंग्रेज़भारतविद ए. एल बाशम ने विवेकानंद को इतिहास का पहला व्यक्ति बताया, जिन्होंने पूर्व की आध्यात्मिक संस्कृति के मित्रतापूर्ण प्रत्युत्तर का आरंभ किया और उन्हें आधुनिक विश्व को आकार देने वाला घोषित किया।

मसीहा के रूप में

अरबिंदो घोष, सुभाषचंद्र बोस, सर जमशेदजी टाटा, रबींद्रनाथ टैगोर तथा महात्मा गांधी जैसे महान व्यक्तियों ने स्वामी विवेकानन्द को भारत की आत्मा को जागृत करने वाला और भारतीय राष्ट्रवाद के मसीहा के रूप में देखा। विवेकानंद 'सार्वभौमिकता' के मसीहा के रूप में उभरे। स्वामी विवेकानन्द पहले अंतरराष्ट्रवादी थे, जिन्होंने 'लीग ऑफ़ नेशन्स' के जन्म से भी पहले वर्ष 1897 में अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, 

अतीत के झरोखे से

पश्चिम को योग और ध्यान से परिचित कराने वाले स्वामी विवेकानंद के बारे में वहां कम ही लोग जानते हैं लेकिन भारत में इस बंगाली बुद्धिजीवी का अब भी बहुत सम्मान किया जाता है। न्यूयॉर्क में जहां कभी स्वामी विवेकानंद रहते थे, वो बीबीसी संवाददाता ऐमिली ब्युकानन का ही घर था। बजरी पर कार के टायरों की चरमराहट, आने वाले तूफान की आशंका और हवाओं के साथ झूमते पेड़। 1970के दशक में ऐमिली ब्युकानन के लिए इन बातों के कोई मायने नहीं थे। उनका नज़रिया हाल में उस वक्त बदला जब इन्हें पता चला कि वह स्वामी भारत के सबसे प्रभावशाली आध्यात्मिक शिक्षकों में से एक थे। स्वामी विवेकानंद ने पश्चिम को पूरब के दर्शन से परिचित कराया था। ऐमिली ब्युकानन के परिवार ने उस जमाने में उन्हें अपने घर में रहने के लिए आमंत्रित किया था और स्वामी जी के काम के प्रकाशन में उनकी सहायता की थी। शिकागो में हुए धर्मों के विश्व संसद से उन्हें दुनिया भर में ख्याति मिली। इस धर्म संसद में विवेकानंद ने सहिष्णुता के पक्ष में और धार्मिक हठधर्मिता को खत्म करने का आह्वान किया। अजीब इत्तफ़ाक़ था कि वह तारीख 11 सितंबर की थी। ‘अमेरिका के भाईयों और बहनों’ कहकर उन्होंने अपनी बात शुरू की थी। प्रवाहपूर्ण अंग्रेज़ी में असरदार आवाज़ के साथ भाषण दे रहे उस सन्न्यासी ने गेरूए रंग का चोगा पहन रखा था। पगड़ी पहने हुए स्वामी की एक झलक देखने के लिए वहां मौजूद लोग बहुत उत्साह से खड़े हो गए थे। इस भाषण से स्वामी विवेकानंद की लोकप्रियता बढ़ गई और उनके व्याख्यानों में भीड़ उमड़ने लगी। ईश्वर के बारे में यहूदीवाद और ईसाईयत के विचारों के आदी हो चुके लोगों के लिए योग और ध्यान का विचार नया और रोमांचक था। रामकृष्ण परमहंसकी अनुयायी कैलिफोर्नियाई नन को वहां 'प्रव्राजिका गीताप्रणा' के नाम से जाना जाता है। वहां रिट्रीट सेंटर चला रहीं प्रवराजिका गीताप्रणा ने ऐमिली ब्युकानन को पूरी जगह दिखाई। घर में साथ टहलते हुए प्रवराजिका ने बताया कि उनका बिस्तर भारत भेज दिया गया है लेकिन यह वही कमरा है जहां वो सोया करते थे, इस भोजन कक्ष में वह खाना खाया करते थे। स्वामी विवेकानंद बीबीसी संवाददाता ऐमिली ब्युकानन की परदादी को 'जोई-जोई' कहा करते थे। वह उम्र भर उनकी दोस्त और अनुयायी रहीं। उन दिनों कम ही देखा जाता था कि श्वेत महिलाएं और भारतीय एक साथ यात्राएं करते हों।[2]

विवेकानंद ने 1 मई 1897 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन और 9 दिसंबर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के किनारेबेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की। उनके अंग्रेज़ अनुयायी कैप्टन सर्वियर और उनकी पत्नी ने हिमालय में 1899 में 'मायावती अद्वैत आश्रम' खोला। इसे सार्वभौमिक चेतना के अद्वैत दृष्टिकोण के एक अद्वितीय संस्थान के रूप में शुरू किया गया और विवेकानंद की इच्छानुसार, इसे उनके पूर्वी और पश्चिमी अनुयायियों का सम्मिलन केंद्र बनाया गया। विवेकानंद ने बेलूर में एक दृश्य प्रतीक के रूप में सभी प्रमुख धर्मों के वास्तुशास्त्र के समन्वय पर आधारित रामकृष्ण मंदिर के भावी आकार की रूपरेखा भी बनाई, जिसे 1937 में उनके साथी शिष्यों ने पूरा किया।

ग्रन्थों की रचना

'योग', 'राजयोग' तथा 'ज्ञानयोग' जैसे ग्रंथों की रचना करके विवेकानन्द ने युवा जगत को एक नई राह दिखाई है, जिसका प्रभाव जनमानस पर युगों-युगों तक छाया रहेगा। कन्याकुमारी में निर्मित उनका स्मारक आज भी उनकी महानता की कहानी कह रहा है।

मृत्यु

उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्वभर में है। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा "एक और विवेकानंद चाहिए, यह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।" प्रत्यदर्शियों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने अपने 'ध्यान' करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घंटे ध्यान किया। उन्हें दमा और शर्करा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक व्याधियों ने घेर रखा था। उन्होंने कहा भी था, 'यह बीमारियाँ मुझे चालीसवर्ष के आयु भी पार नहीं करने देंगी।' 4 जुलाई, 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मंदिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की।
लेख  http://bharatdiscovery.org/