सोमवार, 8 मई 2017

सोमवंशी अथवा चंद्रवंशी क्षत्री

Historical Research of 

Real Yaduvanshi  |Pauranik Yadav and Yadukul Shiromane Shre Krishna 's Vanshaj

वास्तविक यदुवंशी/पौराणिक यादवों तथा यदुकुल शिरोमणी भगवान् श्री कृष्ण के वंशजों का ऐतिहासिक शोध ----

आधुनिक वर्तमान  परिवेश में वास्तविक यदुवंशी /पौराणिक यादव (जादौ, जादौन, जडेजा ,भाटी, जादव, वनाफर, चूड़ा शमा, सरवैया, रायजादा, छौंकर, वडेसरी, जसावत, जैसवार, सोहा, मुड़ेचा, पोर्च, बितमन , बरगला, नारा, उरिया आदि) समाज अपने इतिहास, संस्कृति, एवं अस्तित्व से अनभिज्ञ है और वर्तमान समय के चलते जातीय घाल-मेल में दन्त कथाओं और अप्रमाणिक इतिहास को यत्र-तत्र पढ़ कर या सुनकर भ्रमित हो रहा है। किसी ने सत्य ही कहा है 

"जो अपना इतिहास नहीं जानता, वह खुद को भी नहीं जानता"

क्यों कि इतिहास से ही किसी व्यक्ति या समाज की पहचान बनती है।आज संसार की अनेक जातियाँ अपने जातीय इतिहास के ज्ञान के बिना लुप्त हो चुकी है।विद्वान और भागवताचार्य इस यदुवंश की महिमा का वर्णन करते रहते है लेकिन स्वयं यदुवंश समाज आज भी अपने ही गौरवशाली इतिहास और संस्कृति से अपरिचित तथा भृमित बना हुआ है।जब कि अन्य जातियां यदुवंश के विशेष नामों ,उपनामों तथा महापुरुषों का प्रयोग कर सामाजिक ,राजनैतिक ,एवं आर्थिक लाभ प्राप्त कर रही है।आज कल कुछ जातीय इतिहासकार /लेखक अपनी जाति के इतिहास लेखन में अप्रमाणित ,भर्मपूर्ण एवंकाल्पनिक विवरण लिख रहे है तथा हमारे वास्तविक क्षत्रियों के इतिहास के साथ अपने कल्पित इतिहासको जोड़ने की पूर्ण कोशिस कर रहे हैजिसे पढ़ कर पाठक भर्मित होजाता है।ऐसे भ्रामक ज्ञान से समाज के लोगों में कुतर्कों का जाल फैलता है ।यह भ्रामक छेड़ -छाड़ यदुवंश के विशाल इतिहास के साथ अत्यधिक दृष्टिगोचर है क्यों कि समस्त प्राचीन इतिहास का मूल श्रोत वेद और पुराण है जिनमें यदुवंश का इतिहास विस्तार से वर्णित है।अतीत के ज्ञान विना वर्तमान का सरलीकरण एवं भविष्य का मार्गदर्शन नहीं होता ।
 चन्द्रवंश से यदुवंश का जन्म कैसे हुआ ? 
Birth of yaduvansh from Chandravansh

यदुवंश प्रायः चन्द्रवंश की एक प्रमुख शाखा है।ऋग्वेद में यदुवंशी तथा चंद्रवंशी अनेक राजाओं का वर्णन मिलता है जिनको शुद्ध क्षत्रिय कहा गया है।यदुवंश द्विजाति -संस्कारित है।प्राचीन पौराणिक इतिहास के अनुसार क्षत्रिय राजा ययाति का विवाह दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री (ब्राह्मण कन्या )देवयानी से हुआ था जिसके बड़े पुत्र महाराज यदु थे जिनसे यदुवंश चला ।इसी कारण यदुवंश में उत्पन्न श्री कृष्णा एवंबलराम का यदुवंश के कुलगुरु गर्गाचार्य जी द्वारा वसुदेव जी के कहने पर नन्द गोप ने गोकुल में द्विजाति यज्ञोपवीत नामकरण संस्कार कराया था ।चन्द्रवंश में से यदुवंश का जन्म कैसे हुआ इसका वर्णन इस प्रकार है।
ब्रहमा के पुत्र अत्रि थे।जिनकी पत्नी भद्रा से सोम अथवा चन्द्रमाका जन्म हुआ।इस लिए ये वंश सोम या चंद्र वंश के नाम से जाना गया।अत्रि ऋषि से इस वंश की उत्पती हुई इस लिए इस वंश के वंशजों का गोत्र अत्री माना गया।तथा इस वंश के वंशज चंद्रवंशी या सोमवंशी कहलाये।चंद्रमा जी ब्रह्स्पति जी की पत्नी तारा का चुपचाप हरण कर लाये। उनसे वुद्ध नामक पुत्र पैदा हुआ। उनके शूर्यवंशी मनु की पुत्री इला से पुरुरुवा नाम का पुत्र हुआ। कालान्तर में वे चक्रवर्ती सम्राट हुए। इन्होंने प्रतिस्थानपुर जिसे प्रयाग कहते है बसाया और अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया। राजा पुरुरवा के उर्वशी के गर्भ से आयु आदि6 पुत्र हुए।महाराज आयु केसरभानुया राहु की पुत्रीप्रभा से नहुष आदि 5 पुत्र हुए।महाराज आयु अनेक आर्यों को लेकर भारत की ओर आयेऔर यमुना नदी के किनारे मथुरा नगर बसाया।राजा आयु के बड़े पुत्र नहुष राजा बने।महाराज नहुष के रानी वृजा से 6पुत्र पैदा हुए जिनमे यती सबसे बड़े थे लेकिन वे धार्मिक प्रवर्ती के होने के कारण राजा नही बनेऔर ययाति को राजा बनाया गया।राजा ययाति की दो रानियां थीजिन्मे एक देवयानी जोदैत्यगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी तथा दूसरी शर्मिष्ठा जो दानव राज वृषपर्वा की पुत्री थी।देवयानी से यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा से द्रुह्यु अनु और पुरू हुए।सभी पांचों राजकुमार सयुक्त रूप से पाञ्चजन्य कहलाये। राजा ययाति ने अपने बड़े बेटे यदु से उनका यौवन मागा जिसे उन्होंने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दीया।सबसे छोटे पुत्र पुरू ने अपना यौवन पिता को देदीया।राजा ययाति ने अप्रसन्न होकर युवराज यदु को उनके बीजभूत उत्तराधिकार से वंचित करके कुमार पुरू को यह अधिकार पारतोषिक में देने की घोषणा की।राजा ययाति के पुत्रों में यदु और पुरू के वंशज ही भारतीय इतिहास का केंद्र रहे। बुद्ध और ययाति तक के राजाओं के वंशज हीसोमवंशी या चंद्रवंशी कहलाये।राजा पुरू के वंशजोंको हीसोमवंशी या चंद्रवंशी कहलाने का अधिकार था।इस लिए क्यों क़ि यदू कुमार ने यौवन देने से इनकार कर दीया थाइस पर महाराज ययाति ने यदु को श्राप दिया की तुम्हारा कोई वंशज राजा नही बनेगा और तुम्हारे वंशज सोम या चंद्र वंशी कहलाने के अधिकारी नहीं होंगे।केवल राजा पुरू के वंशज ही सोम या चंद्रवंशी कहलायेंगे।इसमे कौरव और पांडव हुए।यदु महाराज ने राजाज्ञा दी की भविष्य में उनकी वंश परंम्परा"यदु या यादव "नाम से जानी जाय और मेरे वंशज"यदुवंशी या यादव"कहलायेंगे।राजा पुरू के वंशज,पौरव या पुरुवंशी ही अब आगे से सोमवंशी या चंद्रवंशी कहलाने के अधिकारी रह गये थे।राजा पुरू ,राजा दुष्यंत के पूर्वज थे जिनके राजकुमार भरत के नाम पर इस देश का नाम "भारत या भारतवर्ष"पड़ा।राजा पुरू के ही वंश मेराजा कुरु हुए जिनके कौरव और पांडव हुए जिनमे आपस में महाभारत युद्ध हुआ। प्रयाग से मध्य-देश पर राज्य करते हुए राजा ययाति अत्यधिक अतृप्त यौनाचार से थक गए इसलिए वृद्धावस्था में राज्य त्याग कर उन्होंने वानप्रस्थ का मार्ग अपनाया और जंगल में सन्यासी का जीवन व्यतीत करने चले गये।भारत में केबल यदु और पुरू की संतती शेष रही और इन्ही के वंशजों ने भारत के भावी भाग्य का निर्माण किया।
 Kul of yadyvanshis /pauranik yadavas kshtriyas 
यदुवंशी / पौराणिक यादव क्षत्रियों के कुल
महाराज यदु के 4 पुत्र हुए जिनमें शाष्ट्राजित और क्रोष्ट्रा के वंशज अधिक प्रशिद्ध हुये ।शाष्ट्राजित के वंशज हैहय यादव कहलाये जो यदु के राज्य के उत्तरी भाग के शासक हुए ।
क्रोष्ट्रा --ये महाराज यदु के बाद प्रथम यदुवंशी शासक हुये जो दक्षिणी भाग यानी जूनागढ़ के शासक हुये ।महाराज क्रोष्ट्रा का कुल आगे चल कर कई उपकुलों में विभाजित हुआ ।जिनका विवरण इस प्रकार है। 
अ --राजा दर्शाह के वंशज दर्शाह यादव कहलाये । 
ब -राजा मधू के वंशज मधु यादव कहलाये । 
स-राजा सात्वत के वंशज सात्वत यादव कहलाये । 
द-राजा वृष्णी के वंशज वृष्णी यादव कहलाये जिनमें शूरसेन ,वासुदेव ,श्री कृष्ण ,अक्रूर ,उद्धव ,सात्यकी , कुन्ती ,सत्यभामाके पिता सत्राजित हुये । 
ध- राजा अंधक महाभोज के वंशज भोज वंशी यादव कहलाये जिनमे कुकर -के वंश में राजा उग्रसैन और देवक हुए और भजमन के वंश में कृतवर्मा और सतधनवा हुआ । 
न-कौशिक वंश के यादवों में चेदिराज दमघोष हुए जिनका पुत्र शिशुपाल हुआ । 
प -विदर्व वंशी यादवों में राजा भीष्मक हुए जिनकी पुत्री रुक्मणी जी थी ।
विष्णु पुराण के अनुसार दानवों का नाश करने के लिए देवताओं ने यदुवंश में जन्म लिया जिसमें कि 101 कुल थे।उनका नियंत्रण और स्वामित्व भगवान् श्री कृष्ण ने खुद किया (वि0 पु0 पेज 299) ।महाभारत में 56 कोटि यादवों का वर्णन आता है।इससे लोग अनुमान करते है कि 56 करोड़ यदुवंशी या यादव क्षत्रिय थे परंतु वास्तव में यह 56 शाखाएं थी जिन्हें कुल कहते है।इस लिए 56 करोड़ यादव क्षत्रिय मानना भूल है।मेजर अरसेकिंन साहिब ने भी राजपुताना गजेटियर सन् 1908 में यादव क्षत्रियों के 56 तड़नें या कुल माने है ।वायुपुराण के अनुसार यदुवंशियों के 11कुल कहे जाते है ।"कुलानि दश चैकं च यादवानाम महात्मनां " ।यदुवंश में यादव कुमारों को शिक्षा देने वाले आचार्यों की संख्या 3करोड़ 88 लाख थी फिर उन महात्मा यादवों की गणना कौन कर सकता था ।राजा उग्रसैन के साथ 1 नील के लगभग यदुवंशी सैनिक थे (श्रीमद्भभागवत पेज 598 )।चंद्रमा से श्री कृष्ण के समय तक कुल 46 राजाओं की पीढ़ीया हुई।भगवान् श्री राम कृष्ण जी से 21 पीढ़ी पहले हुये थे ।महाराज यदु की वंश में 42 पीढ़ी बाद वृष्णी राजा हुएजिनके पुत्र देवमीढुश हुये जिनकी अश्मकी नामक पत्नी से महाराज शूरसेन हुये जिनके मारिषा नाम की पत्नी से वासुदेव आदि 10 पुत्र व् कुन्ती आदि 5 पुत्रियां हुई ।वासुदेव जी की पत्नी देवकी जी जो अंधक वंशी यादव उग्रसैन के भाई देवक की पुत्री थीसे भगवान् श्री कृष्ण हुए ।कुछ जाति विशेष के इतिहासकारों ने अहीरों या गोपों के शासक नन्द जी को यदुवंशियों से जोड़ने के प्रयाश में श्री कृष्ण के 4पीढ़ी पूर्व देवमीढु यदुवंशी राजा की क्षत्रिय पत्नी जो इक्ष्वाकु वंश की राजकुमारी अश्मकी थी उससे महाराज शूरसेन पैदा हुए जिनके वासुदेव जी थे और देवमीढुश की वैश्य जाति की पत्नी से पर्जन्य उत्पन्न हुए जिनके पुत्र नन्द जी हुये जिनसे अहीर या गोप अपनी उत्तपति बताते है जो बिलकुल असत्य है जिसका कोई उल्लेख पौराणिक साहित्य या इतिहास में नही मिलता है ।ऐसे में पर्जन्य की उत्तपति एक मिथक प्रयास कहा जासकता है ।इस सम्बन्ध में पौराणिक एवं ऐतिहासिक कोई भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिससे यह प्रमाणित हो सके कि अहीर जाति राजा यदु से उत्पन्न यदुवंश में उत्पन्न है ।आधुनिक देशी व् विदेशी इतिहासकारों ने भी इस जाति का यदु के वंश से कोई सम्वन्ध नही बताया है ।और नही भगवान् कृष्ण के किसी वंशज से इनका सम्वन्ध है। पूर्व काल से ही गोपों और यदुवंशी क्षत्रियों का सामजिक जीवन भिन्न रहा है।इतिहास का अध्ययन व् चिंतन किये बिना कोई कुछ भी लिख दे तो वही सत्य नहीं माना जासकता है।आजकल व्यक्ति अपनी महत्वाकांक्षा के लिए सत्य को भुला कर असत्य की खोज करने में लगरहा है।
श्रीमद्वाभागवत और अन्य पौराणिक ग्रंथों के अनुसार वर्णन मिलता है कि श्री कृष्ण और बलराम के नामकरण संस्कार कराने के लिए वासुदेव जी ने यदुवंशियों के कुलगुरु महर्षि गर्गाचार्य को गोकुल में भेजा था जिन्होंने कंश के भय से गौशाला में छिप कर गर्गाचार्य जी नामकरण संस्कार कराया था ।यह रहस्य नन्द गोप ने अपने अन्य भाई बन्ध गोपों से भी छिपाया था ।यदि नन्द जी यदुवंश में उत्पन्न होते तो वे कृष्ण और बलराम जी का नामकरण अपने कुल गुरु महर्षि शाडिंलया से क्यों नहीं कराया ।क्यों कि एक ही वंश के दो कुलगुरु नहीं होसकते ।गर्गाचार्य जी को सम्पूर्ण श्रेष्ठ यादवों ने महाराज शूरसेन की इच्छा से मथुरापुरी में अपने पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित किया था ।उस समय उग्रसेन मथुरा के राजा थे।गर्ग जी की इच्छा से ही वासुदेव और देवकी जी का विवाह हुआ था ।महावन में नंदपत्नी के गर्भ से योगमाया ने स्वतः जन्म ग्रहण किया था ।यशोदा जी को गोपी कहा गया है (गर्ग स0 पेज 30 ) ।नन्द जी ब्रज में शोणपुर के शासक थे।नन्द जी ने खुद कहा है कि मैं तो व्रजवासी गोप -गोपियों का आज्ञाकारी सेवक हूँ वरजेश्वर नंदराय जी कहते थे उनको सभी व्रजवासी ।नन्द जी और वासुदेव जी ने हमेशा हर जगह जहाँ भी मिले है एक दूसरे को मित्र ही कहा है सगे संबंधी नही ।
श्री कृष्ण की 8 पटरानी थी जिनमे रुक्मणी ,सत्यभामा ,कालिंदी ,सत्या , मित्रविन्दा ,भद्रा ,लक्ष्मणा ,और जामवंती ।इसके अलावा श्री कृष्ण जी ने नरकासुर के वंदी घर से लाई हुई 16100 कन्याओं से भी एक ही लग्न में विविधकाय हो कर विवाह किया और प्रत्येक कन्या से वाद में एक -एक कन्या व् दस -दस पुत्र हुए।इसके आलावा 8 पटरानियों से भी दस -दस पुत्र और एक -एक कन्या हुई।इस प्रकार भगवान् श्री कृष्ण के कुल 1लाख 70 हजार 1 सौ 88 संतानें थी जिनमें प्रधुम्न ,चारुदेशन ,और शाम्ब आदि 13 पुत्र प्रधान थे ।प्रधुम्न ने रुक्मी की पुत्री रुक्मवती से विवाह किया जिससे अनिरुद्ध जी पैदा हुए ।अनिरुद्ध जी ने भी रुक्मी की पौत्री सुभद्रा से बिवाह किया जिससे यदुकुल शिरोमणी यदुवंश प्रवर्तक श्री वज्रनाभ जी पैदा हुए ।वज्रनाभ जी के पुत्र प्रतिवाहु ,प्रतिवाहु के सुवाहू ,सुबाहु के शांतसेन् और शांतसेन् के शतसेन हुये ।यहाँ से ये यदुवंश या यादव वंश फिर अनेक शाखाओं और उपशाखाओं जैसे जादौन ,जडेजा ,भाटी ,चुडासमा ,सरवैया ,छौंकर ,जादव ,रायजादा ,बरेसरी ,जसावत ,जैसवार ,वनाफ़र ,बरगला ,यदुवंशी ,सोहा ,मुड़ेचा ,सोमेचा ,बितमन ,नारा ,पोर्च ,उरिया ,आदि में विभाजित होगया ।सन् 1900 के दशक तक यदुवंस के लोग यदुवंशी या यादव सरनेम लिखते थे ।कुछ इतिहासकारों ने बाद में यदु या यादव का अपभ्रंश जदु ,जादव ,जादों या जादौन कर दिया जो बाद में प्रचलन में आया ।महाकवि तुलसीदास जी ने रामायण में यदु वंश को जदुवंश कहा है ।
दुसरा प्रमाण यह है कि भगवान् श्री कृष्ण ने जरासंध के बार बार आक्रमण करने पर ब्रजमंडल की रक्षाभावना से योगमाया के द्वारा अपने समस्त स्वजन सम्बन्धियों को द्वारिका में पहुंचा दिया ।शेष प्रजा की रक्षा के लिए बलराम जी को मथुरा में छोड़ दिया ।इससे इस्पस्ट है कि श्री कृष्ण जी ने समस्त यदुवंशियों को ही द्वारिका पहुंचाया था जो उनके स्वजन संबंधी थे ,ना कि नन्द -यशोदा आदि गोपों को ।उनको तो ब्रज में ही छोड़ दिया था जिनसे काफी समय बाद सूर्यग्रहन पर्व पर कुरुक्षेत्र में आने पर पुनः नन्द ,यशोदा ,राधा जी तथा अन्य गोपों से ब्रज में मिले थे ।इससे प्रमाणित होता है कि नन्द जी गोप वंश के थे न कि यदुवंश से।नन्द आदि गोपों को यदुवंशियों का परम हितैषी कहा गया है न कि यदुवंस में उत्पन भाई के रूप में (श्रीमद् भागवत दशम स्कंध ,अध्य्याय 82 श्लोक 14 ) ।मत्स्य पुराण ,विष्णुपुराण ,गर्गसंहिता ,वायुपुराण ,हरिवंश पुराण ,अग्निपुराण ,महाभारत ,वरहमपुरान ,शुखसागर ,ब्रह्मवैवतरपुरान आदि अनेक पौराणिक ग्रंथों में नन्दादि गोपों का अहीर जाति के अनुसार वर्णन मिलता है ।श्री कृष्ण के लिए सभी जगह यादव /यदुवंशी शब्द का प्रयोग हुआ है ।अब यह बात अलग है कि कोई व्यक्ति किसी पौराणिक या ऐतिहासिक सन्दर्भ का अपने स्वार्थ या पक्ष में किस प्रकार अर्थ निकाल रहा है ,अर्थात अर्थ का अनर्थ कर रहा है ।इसके अलावा सैकड़ों प्रमाण है जिनसे यह सिद्ध होता है कि भगवान् श्री कृष्ण महाराज यदु के वंशज "यदुकुल शिरोमणी "है और नन्द जी के वंश का यदुवंश से कोई भी ताल -मेल का प्रमाण नही मिलता किसी भी प्रमाणिक सर्व मान्य ग्रन्थ या वेद में । गर्ग जी ने स्वयं नन्द जी से श्री कृष्ण के नामकरण के समय कहा था कि यह तुम्हारा पुत्र पहले वासुदेव जी के घर भी पैदा हुआ है।इस लिए इस रहस्य को जानने वाले लोग इस बालक को "श्रीमान वासुदेव "भी कहते है ।कृष्ण के वंश का वर्णन भी इस प्रकार है।
मंडलकमीशंन के सचिव सदस्य S. S. Gilके अनुसार "सच पूछिये तो जाति चिन्ह के रूप में "यादव "शब्द को 1920 के दशक में ढूंडा गया ,जब कई परम्परागत पशु पालक जातियों ने एकजुट होकर भगवान् कृष्ण से अपने वंश का सम्बन्ध जताते हुये अपने इस्तर को ऊपर उठाना चाहा ।उनका कहना था कि कृष्ण स्वयंम पशुपालक थे और "राजा यदु "के वंशज थे ।इस लिए वे इस नतीजे पर पहुंचे कि यह सव जातियां वस्तुतः भगवान् कृष्ण के वंशज है इस लिए उन्हें अपने को "यादव" कहना चाहिये ।किंत्तु यह सही नहीं है ।यह ठीक है कि यादव उस समय विभिन्न गोत्रों /उपनामों का प्रयोग कर रहे थे और उनमें स्वयंम छोटे -बड़े की भावना घर कर गयी ।लेकिन अब समय के अनुसार सभी यदुवंशियों को पुनः संगठित होना चाहिए ।संगठन में बहुत बड़ी ताकत होती है ।इसके साथ -साथ शिक्षित भी होना अति आवस्यक है जिससे समाज में विकास संभव हो ।आज का युग शिक्षा और सम्रद्धि का युग है ।जिस समाज के पास ये दोनों है वही समाज आज विकास की ओर अग्रसर है ।जय हिन्द ।जय यदुवंश ।जय श्री कृष्णा ।
प्रचार -प्रसार द्वारा - राज यदुवंशी , सुल्तानपुर बहेड़ी बरेली( यूपी)
        ऍम ए इतिहास , पीजी डिप्लोमा इन मैनेजमेंट
लेखक -डा0 धीरेन्द्र सिंह जादौन  ,व्याख्याता कृषि ,राजकीय महाविद्यालय सवाईमाधोपुर ,राजस्थान ।
लेखक आभारी है श्री महावीर सिंह जी ,पूर्व प्रवक्ता हिंदी ,ग्राम -रणवारी ,तहसील -छाता ,जिला -मथुरा ,उत्तरप्रदेश जिनकी मदद से ये लेख लिखा गया है ।मैं उनका तहे दिल से आभार प्रकट करता हूँ और भविष्य में आशा करता हूँ कि वे अपना यदुवंश इतिहास लेखन में सहयोग देते रहेंगे ।जय श्री राधे -कृष्णा । सभी यदुवंशी भाइयों को सादर प्रणाम । 

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

Aabhir jo Ahir Raja the aur videshon me Arab aur Israel tak tha, wah bhi to yaduvanshi hi the.
Tum yadavon ke itihas ko tod marod ke bata rahe ho jo ki galat hai,
Pehle Aabhiron ka itihas padho phir jawab dena.
Jo samaj ko todte hai vo nasht ho jate hai.