नृसिंह चतुर्दशी के दिन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण ने अर्ध सिंह, अर्ध मनुष्य के रूप में अवतार लिया था।
जैसा की श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है –
“हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ।”
भगवान श्री कृष्ण के नृसिंह अवतार लेने के दो उद्देश्य थे – पहला , अपने भक्त प्रह्लाद का उद्धार करना और दूसरा, दुष्टों का विनाश करना।
‘प्रह्लाद’ का शाब्दिक अर्थ है –
“पराकाष्ठा रूपेण आह्लाद” अर्थात् सदा आनंद से परिपूर्ण।
यह सारी कथा भक्त शिरोमणि प्रह्लाद महाराज और उनके नास्तिक और निर्दयी पिता हिरण्यकशिपु के बीच मतभेद पर आधारित हैI प्रह्लाद महाराज सिर्फ पाँच वर्ष के बालक थे और उनका अपराध क्या था? सिर्फ इतना की वह कृष्ण भक्त थे और ‘हरे कृष्ण’ का जाप करते थे। पर उनके पिता इतने निर्दयी थे की वे अपने पुत्र की भक्ति से क्रोधित थे।
‘हिरण्यकशिपु ‘ का शाब्दिक अर्थ है – “जो स्वर्ण और मखमल के सेज के प्रति आसक्त हो “, जो की सांसारिक लोगों का परम लक्ष्य है। उसने अपने पुत्र को कई तरह से प्रताड़ित किया। दानव सदैव भगवान के भक्तों के विरुद्ध होते है। हिरण्यकशिपु अपने पुत्र प्रह्लाद महाराज को विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित करने के बाद भी उनको कृष्ण भक्ति के मार्ग से भ्रमित न कर पाया।
एक दिन उसने अपने पुत्र को बुला कर स्नेहपूर्वक गोद में उठा लिया और फिर उससे पूछा की “अब तक तुमने अपने अध्यापकों से कौन सी सर्वश्रेष्ठ बात सीखी?” तो प्रह्लाद महाराज ने बताया –
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्र्चेन्नवक्षणा ।
क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्।।
[श्री० भा० ७.५.२३-२४]
अर्थात् “हमें श्री विष्णु के दिव्य नाम, रूप, गुण, आभूषण एवं सेवा सामग्री तथा लीलाओं के बारे में सुनना, कीर्तन करना, स्मरण करना, उनके चरणों की सेवा करना, शोडशोपचार पूजा करना, वंदना करना, उनके सेवक बनना, उनको अपना मित्र मानना और उनको सर्वस्व समर्पण करना (अर्थात काया, वाचा, मनसा उनकी सेवा में लिन रहना) – यह नव विधान शुद्ध भक्ति कहलाते हैंI जिस व्यक्ति ने अपने जीवन को श्री कृष्ण की भक्ति में इन नव विधानों द्वारा समर्पित किया हो उसको सबसे विद्वत्त समझना चाहिए क्योंकि उसने सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित कर लिया है।”
अपने पुत्र प्रह्लाद के मुख से भक्ति के इन वचनों को सुन कर हिरण्यकशिपु अत्यंत क्रोधित हुआ। उसने कँपकँपाते होठों से गुरु शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड से इस प्रकार कहा,”अरे ब्राह्मण के अयोग्य नृशंस पुत्र! तुमने मेरे बालक को भक्ति का पाठ पढ़ाया है?” गुरु शुक्राचार्य के पुत्र ने बताया की उसने या किसी ने उसे यह नहीं पढ़ाया है। उसमे यह भक्ति स्वतः उत्पन्न हुई है। हिरण्यकशिपु ने तब अपने पुत्र से कहा, ” रे धूर्त! हमारे परिवार के सबसे अधम! यदि तुमने यह शिक्षा अध्यापकों से नहीं प्राप्त की तो कहाँ से प्राप्त की?” प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया,
श्रीप्रह्राद उवाच
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो व
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् ।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुन: पुनश्र्चर्वितचर्वणानाम् ।।
[श्री० भा० ७.५.३०]
“प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया, अनियंत्रित इंद्रियों के कारण वे व्यक्ति जो भौतिक जीवन से अति मोहित हैं वह चबाये हुए को चबाते नर्क की ओर अग्रसर हैं। दूसरों के बोधन से, अपने प्रयासों से अथवा इन दोनों के मिश्रित प्रभाव से भी उनमें श्री कृष्ण के प्रति आसक्ति कभी जागृत नहीं होती।”
दो शब्द हैं – एक गृहस्थ और दूसरा गृहव्रत अथवा गृहमेधी। क्योंकि प्रह्लाद अपने पिता की ओर इशारा कर रहा था की वह गृहव्रत है, तो उसने कहा – यदि भौतिक संसार में इस शरीर के साथ कोई सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता हैं तो वह आत्म चिंतन से अथवा सम्मेलन द्वारा ही कभी भी कृष्ण भावनामृत में नहीं आ सकते। ऐसे व्यक्तियों की स्थिति क्या होती है? अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं… वे अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाते अत: उनका मार्ग उन्हें नारकीय जीवन की ओर ले जाता है। उनका मात्र एक कर्म होता है- पुन: पुनश्र्चर्वितचर्वणानाम्… चबाये हुए को चबाना।
सांसारिक सुख का अर्थ है -चबाये हुए को पुन: चबाना। जिस प्रकार एक पिता यह जनता है की उसने विवाह कर परिवार को सुखपूर्वक जीवन प्रदान करने भरसक प्रयास किया पर अंतत: सभी अतृप्त रहे, फिर भी वह अपनी संतान को इसी कार्यकलाप में संलग्न करता है। स्वयं का इस सांसारिक जीवन में बहुत बुरा अनुभव होने के उपरांत भी वह अपनी संतान को सांसारिक सुखों के पीछे भागना सिखाता है। इसी को कहते है ‘पुन: पुनश्र्चर्वितचर्वणानाम्’। यह वही परिस्थिति जैसे गन्ने को कोई चबाए और सारा रस निकाल कर फ़ेंक दे और इस चबाए हुए गन्ने को फिर चबा कर रस निकालना चाहे।
सांसारिक सुख का अर्थ है -‘संभोग’ जो यहाँ का अंतिम और चरम सुख है। जो व्यक्ति इन्द्रिय सुख की ओर बहुत आकर्षित रहते हैं वे निष्कर्ष निकाल लेते हैं की हम परिवार और समाजिक जीवन में ही सुखी रह सकते हैं और सुख में स्त्री और बच्चों का होना अनिवार्य है। ऐसे जीवन में अवश्य कुछ आनंद है परंतु शासत्रानुसार, इसकी मान्यता क्या है?
श्रील विद्यापति ठाकुर अपने एक गीत में लिखते हैं,
तातल सैकते वारिबिंदुसम सुतमितरमणिसमाजे
निः संदेह गृहस्थ जिवन में कुछ आनंद अवश्य होगा अन्यथा इतने लोग इसके लिए क्यों व्याकुल हैं। किंतु यह आनंद तुच्छ और क्षणिक है। इस आनंद की तुलना मरुस्थल में जल बिंदु से की गई है। यदि हम मरुस्थल को बगीचा बनाना चाहें तो उसके लिए एक समुद्र भर जल की आवश्यक्ता होगी। यदि कोई यह कहे की ‘तुम्हे पानी चाहिए? एक बूँद ले लो’, तो यह बात हास्यप्रद होगी? उसी प्रकार यदि हमारा मन भौतिक अभिलाषाओं में मग्न है, तो वह इस मरुभूमि रूपि संसार में एक बूंद के प्रति आसक्त होना है। इसमे दीर्धकिलीन सुख का कोई आसार नहीं है।
वास्तव में हम कृष्ण के प्रति आतुर हैं किंतु इस इच्छा से अनभिज्ञ हैं। हम अपनी इच्छाओं को संसार की भौतिक वस्तुओं से संतुष्ट करना चाहते है जो असंभव है। हम आशा के विरुद्ध आशा करते हैं। जिस प्रकार यदि किसी मछली को पानी से बाहर निकाल कर एक बहुत सुंदर सेज पर लेटा दिया जाये तो वह कभी खुश नहीं रह सकती। उसी प्रकार जीवात्मा जब तक अपने स्वभावानुसार आध्यात्मिक वातावरण में विचरण नहीं करती, वह सुखी नहीं हो सकती। इसी कारण वश जगत में हर कोई निराश व परेशान है।
अगला प्रश्न यह उठता है कि आखिर लोग इस भौतिक जीवन के भोग के लिेए क्यों इतने व्याकुल हैं? इस प्रश्न का उत्तर प्रह्लाद महाराज देते हैं –
न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुं
दुराशया ये बहिरर्थमानिनः।
अन्धा यथान्धैरुपनीयामाना-
स्तेपीशतन्त्र्यामुरुदाम्नि बद्धा ।।
[ श्री० भा० ७.५.३१]
“जो व्यक्ति दृढ़ रुप से भौतिक सुख की कामना में बद्ध हैं, अथ: जिन्होंने अपने समान बाह्य वस्तुओं पर आसक्त एक अंद्धे व्यक्ति को अपना नेता अथवा गुरु स्वीकार किया है, वे कभी समझ नहीं सकते कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य है ‘भगवत् धाम को लौटना’ और भगवान विष्णु के सेवारत् होना। जिस प्रकार एक अंधे व्यक्ति के नेत्रित्व में दूसरे अंधे लोग सत मार्ग से भ्रष्ठ होकर नाले में गिर जाते हैं, उसी प्रकार भौतिक्ता में आसक्त व्यक्ति, उसी तरह आसक्त व्यक्तियों के मार्गदर्शन से कर्म पाश मे बंद्ध जाते हैं, जो अति मज़बूत रस्सियों का बना है, और वे पुन: पुन: भौतिक जीवन के तापत्रैयौं (तीन तरह की विपदाओं) का अनुभव करते हैं।”
जो लोग भौतिक जीवन के भोग द्वारा दृढ़ता से बँधे हैं वे नहीं जानते की जीवन का अंतिम और परम लक्ष्य है – ‘पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री विष्णु’। लोगों ने बाह्य इन्द्रिय – मन, बुद्धि और अहंकार के विषय को अपना मान रखा है। वे सोचते हैं कि ‘मैं शरीर हूँ, मैं इस शरीर का मालिक हूँ।” जैसे किसी ने कमीज या कुर्ता पहन रखा हो और स्वयं को कमीज या कुर्ता ही मानने लगे। हम लोग बाह्य शरीर से ढ़के हुए हैं और इस बाह्य शरीर के पीछे हमारा वास्तविक अस्तित्व है जो श्री कृष्ण का एक अंश होना है। हम कृष्ण के अंश हैं और हमें आध्यात्मिक आहार चाहिए, आध्यात्मिक जीवन चाहिए, तभी हम सुखी हो सकते हैं। यदि कोई सोचे की अच्छे भोजन से, अच्छी नेद्रा से, अथवा अच्छी इन्द्रिय तृप्ति से हम सुखी हो पाएंगे तो वह एक भ्रम है।
अब प्रश्न उठता है आखिर लोगों की सोच ऐसी क्यों है? प्रह्लाद महाराज कहते हैं- अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना [श्री० भा० ७.५.३१] क्योंकि हम लोगों ने ऐसी सभ्यता अपना रखी है जो अन्धे नेता या अन्धे गुरु द्वारा संचालित है। एक अन्धा कई अन्धे लोगों का मार्गदर्शन कर रहा है। ऐसे अन्धे उन अनेक अन्धे अनुयायियों का मार्गदर्शन कर सकते हैं जिन्हे भौतिक दशाओं का सही ज्ञान नहीं है किन्तु ऐसे लोग प्रह्लाद महाराज जैसे भक्तों दरा स्वीकार नहीं किये जाते हैं। तेऽपीशतन्त्र्यामुरुदाम्नि बद्धा [श्री० भा० ७.५.३१] ऐसे अन्धे गुरु बाह्य भौतिक जगत में रूचि रखने के कारण सदैव प्रकृति की मजबूत रस्सियों द्वारा बँधे रहते हैं। जैसे यदि कोई अन्धा व्यक्ति सड़क किनारे खड़ा हो और अन्य लोगों को कहे कि यदि सब उसका अनुसरण करें तो वह उनको सड़क पार करा देगा, तो परिणाम क्या होगा? परिणाम यही होगा की वे सब किसी नाले में जा गिरेंगे अथवा किसी गाड़ी से ट़करा कर घायल हो जाएँगे।
वास्तव में हमने भौतिक प्रगती की है परंतु यही विकास हमारी व्यथा का कारण बन गया है। उदाहरणस्वरुप – कंप्यूटर मशीन। यह हजारों लोगों का काम अकेले कर सकती है परंतु इस कारणवश हजारों लोग बेरोजगार हो गए हैं। इसी को कहते है ‘सांसारिक जीवन की उलझन’। इसका अर्थ यह नहीं है की सारे काम बंद कर दिए जाएँ, किंतु हमे समझना चाहिए कि भौतिक संसार ऐसा है जहाँ किसी समस्या के समाधान से कईं नई समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हें। हमारा जीवन समस्याओं को सुलझाने या समस्याओं को उत्पन्न करने के लिए नहीं बना है हमारा जीवन ईश्वर को समझने के लिए बना है। जो लोग नहीं पहचान पाते की हम सब प्रकृति के कड़े नियमों में बँधे हैं, उन्हें बदलना कठिन है।
अगला प्रश्न उठता है कि लोग कृष्ण भावनामृत में रूचि नहीं दिखा रहे हों, वे अंधे नेता या गुरु द्वारा गुमराह कर दिए गए हों, तो इस परिस्थिति का समाधान क्या है?
प्रह्लाद महाराज कहते हैं –
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थ:।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं
निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥
[श्री० भा० ७.५.३२]
“जब तक भौतिक जिवन के आसक्त लोग एक पवित्र, सांसारिक दूषण से पूर्णतय: मुक्त वैष्णव की चरण रज से नहा न लें तब तक वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, जिनकी असाधारण लीलाओं का सदैव गुणगान होता है, उनके चरण कमलों के अनुरक्त नहीं हो सकते। केवल कृष्ण भावनामृत में आकर इस प्रकार भगवान के चरण कमलों का आश्रय स्वीकार कर के ही कोई भौतिक मलिनता से मुक्त हो सकता है।”
इसलिए हमें शुद्ध भक्त की शरण लेने की आवश्यकता है और सिर्फ यही एक मार्ग है। हमे उस व्यक्ति से निर्देश लेना होगा जो अन्धा नहीं है अर्थात जिसकी आँखे खुली हुई हैं जो सांसारिक बंधन से मुक्त है।
कोई कृष्ण को तब तक नहीं समझ सकता जब तक उस पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की कृपा न हो। जिसने कृष्ण के शुद्ध भक्त की शरण ली हो और उनके चरण कमलों की धूलि धारण की हो वही कृष्ण को समझ सकता है। भगवत धाम जाने का यही एक मार्ग है।
इस प्रकार प्रह्लाद महाराज ने अपने पिता को यह दिव्य उपदेश किया तो उसे ग्रहण करने के बदले हिरण्यकशिपु के होंठ क्रोध से फड़फड़ाने लगे। उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को अपनी गोद से उतार फेंका और अत्यंत क्रुद्ध, पिघले ताँबे जैसे लाल-लाल आँख किये कहा- “क्या विष्णु इस खम्भे में भी है ?” प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया- “वे तो सर्वव्यापी हैं और इस खम्भे में भी हैं।” क्रोध से प्रमत्त हिरण्यकशिपु ने जब खम्भे पर मुठ्ठी से प्रहार किया तो उससे एक भीषण ध्वनि उत्पन्न हुई। पहले तो हिरण्यकशिपु को खम्भे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखा किन्तु प्रह्लाद महाराज के वचन को सत्य करने के लिए भगवान् उस खम्भे से नृसिंह देव के अद्भुत रूप में प्रकट हुए, जिनका आधा अंग सिंह का और आधा अंग मनुष्य का था। जिस प्रकार गरुड़ किसी अत्यंत विषैले सर्प को पकड़ लेता है उसी तरह अट्टहास करते हुए नृसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में दबोचा और जिस त्वचा को इन्द्र का वज्र भी नहीं फाड़ सकता था उसे अपने नाखुनों से फाड़ डाला I
श्री कृष्ण ने भगवद्गीता मे स्पष्ट रूप से कहा है कि “भौतिक प्रकृति मेरी अध्यकक्षता में काम करती है” (मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् [भ० गी० ९.१०])। लेकिन नास्तिक लोग अपने ईश्वर विहीन स्वभाव के कारण नहीं जान पाते की प्रकृति किस तरह से काम करती है और न ही वे ईश्वर की योजना को ही समझ पाते हैं। हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से वरदान लिया था की वह न जल में मरे, ने भूमि पर या आकाश में, न दिन में मरे न रात में, न कोई मनुष्य उसे मार सके न देवता न पशु। वर प्राप्त कर उसने सोचा की वह अमर हो गया। अपनी आसुरी शक्तियों और तामसिक बुद्धि के अहंकार में वह स्वयं को ईश्वर समझने लगा। वह श्री कृष्ण को समर्पित न हो कर स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को ही मारने की योजना बनाने लगा। लेकिन ऐस तामसिक लोगों की योजना सदा ही श्री कृष्ण की योजना के समक्ष विफल होती है। ऐसे नास्तिक और ईश्वर विहीन लोगों को मारने के लिए स्वयं श्री कृष्ण ‘मृत्यु ‘ के रूप में आते हैं। “मृत्युः सर्वहरश्हचाहम् …(भ० गी० १०.३४ ) और उनका कीर्ति, धन, परिवार,ऐश्वर्य सब कुछ हर लेते हैं।
जब नृसिंह भगवान प्रकट हुए तो वो बहुत भयंकर लग रहे थे जिसको अल्प शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता है। उनके गर्जना से सारे हाथी भय से चिंघाडने लगे। यहाँ तक कि नारायण की चिरसंगिनी, लक्षमीजी को भी उनके सम्मुख आने का साहस नहीं हुआॊ। किन्तु, प्रह्लाद महाराज ऐसे भयानक रूप से तनिक भी विचलित नहीं हुए और निश्चिंत उनके चरणों की शरण ली जैसे सिंह का बच्चा सिंह से भयभीत नहीं होता है बल्कि उछल कर उसके गोद में जा बैठता है।
भगवान नृसिंह का भयंकर रूप अभक्तों के लिए निश्चय ही अत्यंत घातक था परन्तु भक्तों के लिए यह रूप सदैव कल्याणकारी होता है। समुद्र का जल स्थल के समस्त जीवों के लिए अत्यंत भयावह होता है लेकिन सागर में रहने वाली एक छोटी सी मछली उसमे निर्भय विचरण करती है। क्यों? बड़े बड़े हाथी तक सागर में बह जाते है, किन्तु छोटी मछली धारा के विरुद्ध तैरती रहती है क्योंकि मछली ने धारा की शरण ले रखी है। अतएव यद्यपि दुष्कृत लोगों को मारने के लिए भगवान कभी- कभी भयानक रूप धारण कर लेते हैं किंन्तु भक्त जन उन्हें सदा पूजते हैं।
हर कोई अपने कर्म फल के अनुरूप ही जन्म पाता है, परंतु यह आवश्यक नहीं है कि यदि पिता नास्तिक है तो पुत्र भी नास्तिक ही होगा।
हिरण्यकशिपु की मृत्यु के पश्चात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवन ने प्रह्लाद महाराज से कहा, “हर जीव की इच्छा को पूरा करना मेरी लीला है, इसलिए तुम मुझसे कोई मनवांछित वर मांग सकते हो। हे प्रह्लाद! तुम मुझसे यह जान लो: जो विभिन्न भावों द्वारा मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न करते है मैं उसकी सारी इच्छाओं को पूर्ण कर सकता हूँ।”
भक्त शिरोमणि प्रह्लाद महाराज ने कहा-” हे सवश्रेष्ठ वर दाता! यदि आप मुझे कोई वर देना चाहते हैं तो मेरी आपसे प्रार्थना है की मेरे ह्रदय के अंतराल में किसी प्रकार की भौतिक इक्छा न रहे ”
नृसिंह भगवन ने प्रह्लाद महाराज से अत्यंत प्रसन्न हो कर कहा-“हे प्रह्लाद! इस भौतिक जगत में रहते हुए तुम सुख का अनुभव करके अपने पुण्यकर्म को समाप्त कर सकोगे और पुण्य कर्म करके पापकर्मों को विनष्ट कर सकोगे। शक्तिशाली काल के कारण तुम अपने शरीर का त्याग करोगे और बंधन से मुक्त हो कर भगवतधाम लौट सकोगे।”
प्रह्लाद महाराज ने कहा -“हे परमेश्वर ! चूँकि आप पतित आत्माओं पर दयालु हैं अतएव मैं आपसे एक ही वर मांगता हूँ की मेरे पिता के पापों को क्षमा कर दें।”
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा -“हे परम भक्त प्रह्लाद! न केवल तुम्हारे पिता अपितु तुम्हारे परिवार के इक्कीस पुर्खों को पवित्र कर दिया गया है। चूँकि तुम इस परिवार में उत्पन्न हुए हो, तुम्हारा संपूर्ण कुल ही पवित्र हो गया है।”
एक बालक जो कृष्ण भावनामृत में होता है वह अपने पिता, परिवार और देश तथा समाज को सबसे अच्छी सेवा प्रदान करता है। कृष्ण भावनामृत से श्रेष्ठ भला क्या सेवा हो सकती है? यदि किसी वैष्णव का परिवार में जन्म होता है तो वह न केवल अपने पिता को, बल्कि अपने पिता के पिता, उनके पिता इस तरह इक्कीस पीढ़ी को मुक्ति प्रदान करता है। कृष्ण भावनामृत में आना परिवार की सर्वश्रेष्ठ सेवा है।
जैसा की श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है –
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्य्हम् ।। [ भ० गी० ४.७]
“हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ।”परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।। [भ० गी० ४.८]
“भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की पुन: स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ।”भगवान श्री कृष्ण के नृसिंह अवतार लेने के दो उद्देश्य थे – पहला , अपने भक्त प्रह्लाद का उद्धार करना और दूसरा, दुष्टों का विनाश करना।
‘प्रह्लाद’ का शाब्दिक अर्थ है –
“पराकाष्ठा रूपेण आह्लाद” अर्थात् सदा आनंद से परिपूर्ण।
यह सारी कथा भक्त शिरोमणि प्रह्लाद महाराज और उनके नास्तिक और निर्दयी पिता हिरण्यकशिपु के बीच मतभेद पर आधारित हैI प्रह्लाद महाराज सिर्फ पाँच वर्ष के बालक थे और उनका अपराध क्या था? सिर्फ इतना की वह कृष्ण भक्त थे और ‘हरे कृष्ण’ का जाप करते थे। पर उनके पिता इतने निर्दयी थे की वे अपने पुत्र की भक्ति से क्रोधित थे।
‘हिरण्यकशिपु ‘ का शाब्दिक अर्थ है – “जो स्वर्ण और मखमल के सेज के प्रति आसक्त हो “, जो की सांसारिक लोगों का परम लक्ष्य है। उसने अपने पुत्र को कई तरह से प्रताड़ित किया। दानव सदैव भगवान के भक्तों के विरुद्ध होते है। हिरण्यकशिपु अपने पुत्र प्रह्लाद महाराज को विभिन्न प्रकार से प्रताड़ित करने के बाद भी उनको कृष्ण भक्ति के मार्ग से भ्रमित न कर पाया।
एक दिन उसने अपने पुत्र को बुला कर स्नेहपूर्वक गोद में उठा लिया और फिर उससे पूछा की “अब तक तुमने अपने अध्यापकों से कौन सी सर्वश्रेष्ठ बात सीखी?” तो प्रह्लाद महाराज ने बताया –
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ।।
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्र्चेन्नवक्षणा ।
क्रियते भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम्।।
[श्री० भा० ७.५.२३-२४]
अर्थात् “हमें श्री विष्णु के दिव्य नाम, रूप, गुण, आभूषण एवं सेवा सामग्री तथा लीलाओं के बारे में सुनना, कीर्तन करना, स्मरण करना, उनके चरणों की सेवा करना, शोडशोपचार पूजा करना, वंदना करना, उनके सेवक बनना, उनको अपना मित्र मानना और उनको सर्वस्व समर्पण करना (अर्थात काया, वाचा, मनसा उनकी सेवा में लिन रहना) – यह नव विधान शुद्ध भक्ति कहलाते हैंI जिस व्यक्ति ने अपने जीवन को श्री कृष्ण की भक्ति में इन नव विधानों द्वारा समर्पित किया हो उसको सबसे विद्वत्त समझना चाहिए क्योंकि उसने सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित कर लिया है।”
अपने पुत्र प्रह्लाद के मुख से भक्ति के इन वचनों को सुन कर हिरण्यकशिपु अत्यंत क्रोधित हुआ। उसने कँपकँपाते होठों से गुरु शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड से इस प्रकार कहा,”अरे ब्राह्मण के अयोग्य नृशंस पुत्र! तुमने मेरे बालक को भक्ति का पाठ पढ़ाया है?” गुरु शुक्राचार्य के पुत्र ने बताया की उसने या किसी ने उसे यह नहीं पढ़ाया है। उसमे यह भक्ति स्वतः उत्पन्न हुई है। हिरण्यकशिपु ने तब अपने पुत्र से कहा, ” रे धूर्त! हमारे परिवार के सबसे अधम! यदि तुमने यह शिक्षा अध्यापकों से नहीं प्राप्त की तो कहाँ से प्राप्त की?” प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया,
श्रीप्रह्राद उवाच
मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो व
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् ।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुन: पुनश्र्चर्वितचर्वणानाम् ।।
[श्री० भा० ७.५.३०]
“प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया, अनियंत्रित इंद्रियों के कारण वे व्यक्ति जो भौतिक जीवन से अति मोहित हैं वह चबाये हुए को चबाते नर्क की ओर अग्रसर हैं। दूसरों के बोधन से, अपने प्रयासों से अथवा इन दोनों के मिश्रित प्रभाव से भी उनमें श्री कृष्ण के प्रति आसक्ति कभी जागृत नहीं होती।”
दो शब्द हैं – एक गृहस्थ और दूसरा गृहव्रत अथवा गृहमेधी। क्योंकि प्रह्लाद अपने पिता की ओर इशारा कर रहा था की वह गृहव्रत है, तो उसने कहा – यदि भौतिक संसार में इस शरीर के साथ कोई सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता हैं तो वह आत्म चिंतन से अथवा सम्मेलन द्वारा ही कभी भी कृष्ण भावनामृत में नहीं आ सकते। ऐसे व्यक्तियों की स्थिति क्या होती है? अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं… वे अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण नहीं रख पाते अत: उनका मार्ग उन्हें नारकीय जीवन की ओर ले जाता है। उनका मात्र एक कर्म होता है- पुन: पुनश्र्चर्वितचर्वणानाम्… चबाये हुए को चबाना।
सांसारिक सुख का अर्थ है -चबाये हुए को पुन: चबाना। जिस प्रकार एक पिता यह जनता है की उसने विवाह कर परिवार को सुखपूर्वक जीवन प्रदान करने भरसक प्रयास किया पर अंतत: सभी अतृप्त रहे, फिर भी वह अपनी संतान को इसी कार्यकलाप में संलग्न करता है। स्वयं का इस सांसारिक जीवन में बहुत बुरा अनुभव होने के उपरांत भी वह अपनी संतान को सांसारिक सुखों के पीछे भागना सिखाता है। इसी को कहते है ‘पुन: पुनश्र्चर्वितचर्वणानाम्’। यह वही परिस्थिति जैसे गन्ने को कोई चबाए और सारा रस निकाल कर फ़ेंक दे और इस चबाए हुए गन्ने को फिर चबा कर रस निकालना चाहे।
सांसारिक सुख का अर्थ है -‘संभोग’ जो यहाँ का अंतिम और चरम सुख है। जो व्यक्ति इन्द्रिय सुख की ओर बहुत आकर्षित रहते हैं वे निष्कर्ष निकाल लेते हैं की हम परिवार और समाजिक जीवन में ही सुखी रह सकते हैं और सुख में स्त्री और बच्चों का होना अनिवार्य है। ऐसे जीवन में अवश्य कुछ आनंद है परंतु शासत्रानुसार, इसकी मान्यता क्या है?
श्रील विद्यापति ठाकुर अपने एक गीत में लिखते हैं,
तातल सैकते वारिबिंदुसम सुतमितरमणिसमाजे
निः संदेह गृहस्थ जिवन में कुछ आनंद अवश्य होगा अन्यथा इतने लोग इसके लिए क्यों व्याकुल हैं। किंतु यह आनंद तुच्छ और क्षणिक है। इस आनंद की तुलना मरुस्थल में जल बिंदु से की गई है। यदि हम मरुस्थल को बगीचा बनाना चाहें तो उसके लिए एक समुद्र भर जल की आवश्यक्ता होगी। यदि कोई यह कहे की ‘तुम्हे पानी चाहिए? एक बूँद ले लो’, तो यह बात हास्यप्रद होगी? उसी प्रकार यदि हमारा मन भौतिक अभिलाषाओं में मग्न है, तो वह इस मरुभूमि रूपि संसार में एक बूंद के प्रति आसक्त होना है। इसमे दीर्धकिलीन सुख का कोई आसार नहीं है।
वास्तव में हम कृष्ण के प्रति आतुर हैं किंतु इस इच्छा से अनभिज्ञ हैं। हम अपनी इच्छाओं को संसार की भौतिक वस्तुओं से संतुष्ट करना चाहते है जो असंभव है। हम आशा के विरुद्ध आशा करते हैं। जिस प्रकार यदि किसी मछली को पानी से बाहर निकाल कर एक बहुत सुंदर सेज पर लेटा दिया जाये तो वह कभी खुश नहीं रह सकती। उसी प्रकार जीवात्मा जब तक अपने स्वभावानुसार आध्यात्मिक वातावरण में विचरण नहीं करती, वह सुखी नहीं हो सकती। इसी कारण वश जगत में हर कोई निराश व परेशान है।
अगला प्रश्न यह उठता है कि आखिर लोग इस भौतिक जीवन के भोग के लिेए क्यों इतने व्याकुल हैं? इस प्रश्न का उत्तर प्रह्लाद महाराज देते हैं –
न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुं
दुराशया ये बहिरर्थमानिनः।
अन्धा यथान्धैरुपनीयामाना-
स्तेपीशतन्त्र्यामुरुदाम्नि बद्धा ।।
[ श्री० भा० ७.५.३१]
“जो व्यक्ति दृढ़ रुप से भौतिक सुख की कामना में बद्ध हैं, अथ: जिन्होंने अपने समान बाह्य वस्तुओं पर आसक्त एक अंद्धे व्यक्ति को अपना नेता अथवा गुरु स्वीकार किया है, वे कभी समझ नहीं सकते कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य है ‘भगवत् धाम को लौटना’ और भगवान विष्णु के सेवारत् होना। जिस प्रकार एक अंधे व्यक्ति के नेत्रित्व में दूसरे अंधे लोग सत मार्ग से भ्रष्ठ होकर नाले में गिर जाते हैं, उसी प्रकार भौतिक्ता में आसक्त व्यक्ति, उसी तरह आसक्त व्यक्तियों के मार्गदर्शन से कर्म पाश मे बंद्ध जाते हैं, जो अति मज़बूत रस्सियों का बना है, और वे पुन: पुन: भौतिक जीवन के तापत्रैयौं (तीन तरह की विपदाओं) का अनुभव करते हैं।”
जो लोग भौतिक जीवन के भोग द्वारा दृढ़ता से बँधे हैं वे नहीं जानते की जीवन का अंतिम और परम लक्ष्य है – ‘पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री विष्णु’। लोगों ने बाह्य इन्द्रिय – मन, बुद्धि और अहंकार के विषय को अपना मान रखा है। वे सोचते हैं कि ‘मैं शरीर हूँ, मैं इस शरीर का मालिक हूँ।” जैसे किसी ने कमीज या कुर्ता पहन रखा हो और स्वयं को कमीज या कुर्ता ही मानने लगे। हम लोग बाह्य शरीर से ढ़के हुए हैं और इस बाह्य शरीर के पीछे हमारा वास्तविक अस्तित्व है जो श्री कृष्ण का एक अंश होना है। हम कृष्ण के अंश हैं और हमें आध्यात्मिक आहार चाहिए, आध्यात्मिक जीवन चाहिए, तभी हम सुखी हो सकते हैं। यदि कोई सोचे की अच्छे भोजन से, अच्छी नेद्रा से, अथवा अच्छी इन्द्रिय तृप्ति से हम सुखी हो पाएंगे तो वह एक भ्रम है।
अब प्रश्न उठता है आखिर लोगों की सोच ऐसी क्यों है? प्रह्लाद महाराज कहते हैं- अन्धा यथान्धैरुपनीयमाना [श्री० भा० ७.५.३१] क्योंकि हम लोगों ने ऐसी सभ्यता अपना रखी है जो अन्धे नेता या अन्धे गुरु द्वारा संचालित है। एक अन्धा कई अन्धे लोगों का मार्गदर्शन कर रहा है। ऐसे अन्धे उन अनेक अन्धे अनुयायियों का मार्गदर्शन कर सकते हैं जिन्हे भौतिक दशाओं का सही ज्ञान नहीं है किन्तु ऐसे लोग प्रह्लाद महाराज जैसे भक्तों दरा स्वीकार नहीं किये जाते हैं। तेऽपीशतन्त्र्यामुरुदाम्नि बद्धा [श्री० भा० ७.५.३१] ऐसे अन्धे गुरु बाह्य भौतिक जगत में रूचि रखने के कारण सदैव प्रकृति की मजबूत रस्सियों द्वारा बँधे रहते हैं। जैसे यदि कोई अन्धा व्यक्ति सड़क किनारे खड़ा हो और अन्य लोगों को कहे कि यदि सब उसका अनुसरण करें तो वह उनको सड़क पार करा देगा, तो परिणाम क्या होगा? परिणाम यही होगा की वे सब किसी नाले में जा गिरेंगे अथवा किसी गाड़ी से ट़करा कर घायल हो जाएँगे।
वास्तव में हमने भौतिक प्रगती की है परंतु यही विकास हमारी व्यथा का कारण बन गया है। उदाहरणस्वरुप – कंप्यूटर मशीन। यह हजारों लोगों का काम अकेले कर सकती है परंतु इस कारणवश हजारों लोग बेरोजगार हो गए हैं। इसी को कहते है ‘सांसारिक जीवन की उलझन’। इसका अर्थ यह नहीं है की सारे काम बंद कर दिए जाएँ, किंतु हमे समझना चाहिए कि भौतिक संसार ऐसा है जहाँ किसी समस्या के समाधान से कईं नई समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हें। हमारा जीवन समस्याओं को सुलझाने या समस्याओं को उत्पन्न करने के लिए नहीं बना है हमारा जीवन ईश्वर को समझने के लिए बना है। जो लोग नहीं पहचान पाते की हम सब प्रकृति के कड़े नियमों में बँधे हैं, उन्हें बदलना कठिन है।
अगला प्रश्न उठता है कि लोग कृष्ण भावनामृत में रूचि नहीं दिखा रहे हों, वे अंधे नेता या गुरु द्वारा गुमराह कर दिए गए हों, तो इस परिस्थिति का समाधान क्या है?
प्रह्लाद महाराज कहते हैं –
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थ:।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं
निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥
[श्री० भा० ७.५.३२]
“जब तक भौतिक जिवन के आसक्त लोग एक पवित्र, सांसारिक दूषण से पूर्णतय: मुक्त वैष्णव की चरण रज से नहा न लें तब तक वे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान, जिनकी असाधारण लीलाओं का सदैव गुणगान होता है, उनके चरण कमलों के अनुरक्त नहीं हो सकते। केवल कृष्ण भावनामृत में आकर इस प्रकार भगवान के चरण कमलों का आश्रय स्वीकार कर के ही कोई भौतिक मलिनता से मुक्त हो सकता है।”
इसलिए हमें शुद्ध भक्त की शरण लेने की आवश्यकता है और सिर्फ यही एक मार्ग है। हमे उस व्यक्ति से निर्देश लेना होगा जो अन्धा नहीं है अर्थात जिसकी आँखे खुली हुई हैं जो सांसारिक बंधन से मुक्त है।
कोई कृष्ण को तब तक नहीं समझ सकता जब तक उस पर पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान की कृपा न हो। जिसने कृष्ण के शुद्ध भक्त की शरण ली हो और उनके चरण कमलों की धूलि धारण की हो वही कृष्ण को समझ सकता है। भगवत धाम जाने का यही एक मार्ग है।
इस प्रकार प्रह्लाद महाराज ने अपने पिता को यह दिव्य उपदेश किया तो उसे ग्रहण करने के बदले हिरण्यकशिपु के होंठ क्रोध से फड़फड़ाने लगे। उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को अपनी गोद से उतार फेंका और अत्यंत क्रुद्ध, पिघले ताँबे जैसे लाल-लाल आँख किये कहा- “क्या विष्णु इस खम्भे में भी है ?” प्रह्लाद महाराज ने उत्तर दिया- “वे तो सर्वव्यापी हैं और इस खम्भे में भी हैं।” क्रोध से प्रमत्त हिरण्यकशिपु ने जब खम्भे पर मुठ्ठी से प्रहार किया तो उससे एक भीषण ध्वनि उत्पन्न हुई। पहले तो हिरण्यकशिपु को खम्भे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं दिखा किन्तु प्रह्लाद महाराज के वचन को सत्य करने के लिए भगवान् उस खम्भे से नृसिंह देव के अद्भुत रूप में प्रकट हुए, जिनका आधा अंग सिंह का और आधा अंग मनुष्य का था। जिस प्रकार गरुड़ किसी अत्यंत विषैले सर्प को पकड़ लेता है उसी तरह अट्टहास करते हुए नृसिंह भगवान ने हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में दबोचा और जिस त्वचा को इन्द्र का वज्र भी नहीं फाड़ सकता था उसे अपने नाखुनों से फाड़ डाला I
श्री कृष्ण ने भगवद्गीता मे स्पष्ट रूप से कहा है कि “भौतिक प्रकृति मेरी अध्यकक्षता में काम करती है” (मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् [भ० गी० ९.१०])। लेकिन नास्तिक लोग अपने ईश्वर विहीन स्वभाव के कारण नहीं जान पाते की प्रकृति किस तरह से काम करती है और न ही वे ईश्वर की योजना को ही समझ पाते हैं। हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से वरदान लिया था की वह न जल में मरे, ने भूमि पर या आकाश में, न दिन में मरे न रात में, न कोई मनुष्य उसे मार सके न देवता न पशु। वर प्राप्त कर उसने सोचा की वह अमर हो गया। अपनी आसुरी शक्तियों और तामसिक बुद्धि के अहंकार में वह स्वयं को ईश्वर समझने लगा। वह श्री कृष्ण को समर्पित न हो कर स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान को ही मारने की योजना बनाने लगा। लेकिन ऐस तामसिक लोगों की योजना सदा ही श्री कृष्ण की योजना के समक्ष विफल होती है। ऐसे नास्तिक और ईश्वर विहीन लोगों को मारने के लिए स्वयं श्री कृष्ण ‘मृत्यु ‘ के रूप में आते हैं। “मृत्युः सर्वहरश्हचाहम् …(भ० गी० १०.३४ ) और उनका कीर्ति, धन, परिवार,ऐश्वर्य सब कुछ हर लेते हैं।
जब नृसिंह भगवान प्रकट हुए तो वो बहुत भयंकर लग रहे थे जिसको अल्प शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता है। उनके गर्जना से सारे हाथी भय से चिंघाडने लगे। यहाँ तक कि नारायण की चिरसंगिनी, लक्षमीजी को भी उनके सम्मुख आने का साहस नहीं हुआॊ। किन्तु, प्रह्लाद महाराज ऐसे भयानक रूप से तनिक भी विचलित नहीं हुए और निश्चिंत उनके चरणों की शरण ली जैसे सिंह का बच्चा सिंह से भयभीत नहीं होता है बल्कि उछल कर उसके गोद में जा बैठता है।
भगवान नृसिंह का भयंकर रूप अभक्तों के लिए निश्चय ही अत्यंत घातक था परन्तु भक्तों के लिए यह रूप सदैव कल्याणकारी होता है। समुद्र का जल स्थल के समस्त जीवों के लिए अत्यंत भयावह होता है लेकिन सागर में रहने वाली एक छोटी सी मछली उसमे निर्भय विचरण करती है। क्यों? बड़े बड़े हाथी तक सागर में बह जाते है, किन्तु छोटी मछली धारा के विरुद्ध तैरती रहती है क्योंकि मछली ने धारा की शरण ले रखी है। अतएव यद्यपि दुष्कृत लोगों को मारने के लिए भगवान कभी- कभी भयानक रूप धारण कर लेते हैं किंन्तु भक्त जन उन्हें सदा पूजते हैं।
हर कोई अपने कर्म फल के अनुरूप ही जन्म पाता है, परंतु यह आवश्यक नहीं है कि यदि पिता नास्तिक है तो पुत्र भी नास्तिक ही होगा।
हिरण्यकशिपु की मृत्यु के पश्चात पूर्ण पुरुषोत्तम भगवन ने प्रह्लाद महाराज से कहा, “हर जीव की इच्छा को पूरा करना मेरी लीला है, इसलिए तुम मुझसे कोई मनवांछित वर मांग सकते हो। हे प्रह्लाद! तुम मुझसे यह जान लो: जो विभिन्न भावों द्वारा मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न करते है मैं उसकी सारी इच्छाओं को पूर्ण कर सकता हूँ।”
भक्त शिरोमणि प्रह्लाद महाराज ने कहा-” हे सवश्रेष्ठ वर दाता! यदि आप मुझे कोई वर देना चाहते हैं तो मेरी आपसे प्रार्थना है की मेरे ह्रदय के अंतराल में किसी प्रकार की भौतिक इक्छा न रहे ”
नृसिंह भगवन ने प्रह्लाद महाराज से अत्यंत प्रसन्न हो कर कहा-“हे प्रह्लाद! इस भौतिक जगत में रहते हुए तुम सुख का अनुभव करके अपने पुण्यकर्म को समाप्त कर सकोगे और पुण्य कर्म करके पापकर्मों को विनष्ट कर सकोगे। शक्तिशाली काल के कारण तुम अपने शरीर का त्याग करोगे और बंधन से मुक्त हो कर भगवतधाम लौट सकोगे।”
प्रह्लाद महाराज ने कहा -“हे परमेश्वर ! चूँकि आप पतित आत्माओं पर दयालु हैं अतएव मैं आपसे एक ही वर मांगता हूँ की मेरे पिता के पापों को क्षमा कर दें।”
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान ने कहा -“हे परम भक्त प्रह्लाद! न केवल तुम्हारे पिता अपितु तुम्हारे परिवार के इक्कीस पुर्खों को पवित्र कर दिया गया है। चूँकि तुम इस परिवार में उत्पन्न हुए हो, तुम्हारा संपूर्ण कुल ही पवित्र हो गया है।”
एक बालक जो कृष्ण भावनामृत में होता है वह अपने पिता, परिवार और देश तथा समाज को सबसे अच्छी सेवा प्रदान करता है। कृष्ण भावनामृत से श्रेष्ठ भला क्या सेवा हो सकती है? यदि किसी वैष्णव का परिवार में जन्म होता है तो वह न केवल अपने पिता को, बल्कि अपने पिता के पिता, उनके पिता इस तरह इक्कीस पीढ़ी को मुक्ति प्रदान करता है। कृष्ण भावनामृत में आना परिवार की सर्वश्रेष्ठ सेवा है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें